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________________ षट आश्वासः २६५ अन्यथा पुतरितुष्टशातिप्रशावताभ्यामात्मनः परषितत्वमवबुध्य' निमन्वपनिरुपये सति मादरेपचारपुर प्रवृत्तिरन्यथा नितिरित्याचरितसंगर स्तान्या महामुनिमाहालयमन्त्रविनासितपुरितमिवावरायां' मथुरापां सपश्यतः सोमवत्तस्य भगवतः सनी नीतस्त घनमुरायमासमवसाय संमातालनिकायस्तावुभावथुपमतारी मातापिलरौ सावरमुक्तियुक्तियां प्रतियोध्यावारितोभयग्रन्यो निमंन्याचारणविधिः समपानि । भवति पात्रासृणकल्पः भोकल्पः कासालोकश्चितो १२वितालोकः । पुग्यजनश्व स्वजन; कामविरे नरे भवति ॥२१॥ प्रत्युपासकाध्ययने अवकुमारस्य तपोग्रहणो नाम पोजशः कल्पः । पुनमहामहोत्सवोत्साहितातोग्रवाशनायमेदुर ४ प्रासावकन्दरायामेतस्यामेय मपुरायो किल १"गोचराय धारणद्धियुगलं मगरमार्ग संगतगतिसगं सत्ता द्विबिपरिवत्सर एवावस्यामसरे बालिकामेकां "घिल्लचिकिन लोचनसनापापालने योग्य वह बनकुमार ऐसे उन अनेक प्रकार के विलासों से, जो कि विद्याधरों के चित्त में संकल्पमात्र से प्राप्त होने वाले थे, समय यापन करने लगा। एक वार जब इसने इष्ट गोत्रीजनों की बुद्धि से और दुष्ट गोत्रीजमों के अनादर से अपने को दूसरे के द्वारा पाला-पोषा हुआ समझा तब इसने प्रतिज्ञा की-'जब मुझे अपने वंश का निश्चय हो जायगा तभी मैं शारीरिक उपचार ( स्नान व भोजन-आदि) में प्रवृत्ति करूंगा, अन्यथा उसका त्याग करूँगा। तब उसके पालक माता-पिता उसे महामुनि के माहात्म्यरूपी मन्त्र से पापरूपी राक्षसों को भयभीत करने वाली मथुरा नगरी में तप करने वाले सोमदत्त नामके आचार्य श्री के समीप ले गए। तब वचकुमार ने अपनी शरीराकृति प्रस्तुत पूज्य आचार्य के शरीर-सरीखी निश्चय की, जिससे उसकी आत्मा में आनन्द-समूह की प्राप्ति हुई। पश्चात् इसने उन दोनों माता-पिता को सम्मानपूर्वक वचनों से और युक्ति से समझाकर वाह्य व आभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग करके निग्रन्थ साधू होकर चारण ऋद्धि की वृद्धि प्राप्त की ।। इस विषय में एक आर्याचछन्द है, उसका अर्थ यह है-जब मुमक्ष मानव कामवासना का त्याग कर देता है अथवा समस्त परिग्रहों को अभिलाषाओं को छोड़ देता है तब उसे मनोज लक्ष्मी तृण-सरीखी प्रतीत होती है । और लोक में एकत्रित हुआ स्त्री-समूह मुर्दे की चिता-सरीखा मालूम पड़ता है एवं कुटुम्बीजन राक्षस-सरीखा प्रतीत होता है ।। २११ ॥ इस प्रकार उपासकाध्ययन में वचकुमार के सपग्रहण करने का निरूपण करने वाला सोलहवा कल्प समाप्त हुआ। अथानन्तर महामहोत्सवों के अवसर पर बजाए जाने वाले वादित्रों की ध्वनि से स्यूल हए भवनरूपी गुफाओं वाली इसी मथुरा नगरी में चारण ऋद्धिधारी दो मुनियों ने, जो कि आहार के लिए नगर-मार्ग में साथ-साथ गमन करने के निश्चय वाले थे, वहाँ पर दो तीन वर्ष की अवस्थाबाली एक अनाथ बालिका देखी, जो कि दूषित ( धुंधले ) व छोटे नेत्रोंवाली थी व दूकानों के अङ्गणों पर वर्तमान धान्य-वाण खानेवाली एवं १. परपोषितत्वम् । २. शात्वा । ३. स्नानभोजनादी । ४. वातप्रतिशः । ५. पितृभ्यां । ६. पापानमेव राक्षसाः यत्र सा तस्यां । ७. समीपे 1 ८. भगवतशरीरसदृशं । ९. ज्ञात्वा । १०. 'ज्ञातिकरणे विक्रियाकर्ता' इति टि० (ख) प्रतो । 'जातिकरणावि क्रियाकर्तारी' इति टि० (च.) प्रती। ११. वचन 1 १२. मृतकवितासदृशः । १३. सदाससमानः । १४. स्यूल । १५. आहारार्थ । १६. वर्षद्वित्रिसमसे । १७. दूपित । १८. अल्फ् । ३४
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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