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________________ पशास्तिलकचम्पूकाव्ये अगरपया' विद्यया निमार्णवपनामुपलक्ष्य परोपकारषिक्षणस्ता विद्यया तमेतल्लपनाविलसाल: मायाशयाई' वित्रालयामास । पवनवेगा सरस्यूहाभोगापगमानन्तरमेव विथायाः सिजि प्रपद अवश्यमिह जरमन्ययमेव मे कृत. प्राणनाणाधेशः प्राणेशाः' इति चेतस्पभिनिविष्य पुनस्वंय नीहारमहीधरस्य नितम्बतोरि गीपर्यन्ते सूर्यप्रतिमा समाश्रितपतो भगवतस्तपःप्रभावसंपावितसमत्ससस्वभ्यापरतस्य संमतस्य पासपोठोपकण्ठ परुतस्तवेयं सेत्स्यतीत्युपदेशाताभिनय. माराय वज्रकुमाराय गगनगमनाङ्गना जीवितभूतामभिमतार्थसाधनपर्याप्ति प्रति विद्या वितीर्य निजनगर्या पर्याट । धनकुमारस्तव तटसूरिसमक्षं फैन मालिनीकूले विधां प्रसाध्यासाध्यसाधनप्रवृद्ध पराक्रमस्तमकमविक्रमा. ल्पीभूतदय पुरंदरवेयं नृिश्यमच्याजमुनिप्रय सस्ता विजयोत्सवपरम्परावतीममरावती पुरमामपितरमझिलखचरापरितघरणसेवं भाइकरदेवं निवेश्य पश्येन्नियः स्वयंवरम्याजेन विहिताभिलषितकातसङ्गामनङ्गसङ्गसंगत-झारसुभगां पवनवेगासपराग्वाम्बरचरपतिवराः विवाह्य महाभागरह्यो रिहायश्वरचित्तचिन्तामात्रायासरसस्तविलास कालमसिवायामास । जिसका शरीर विद्या सिद्ध करने के लिए हिमवन पर्वत की शिखर पर वर्तमान बन की लताओं से वेष्टित हुए प्रदेश पर स्थित था । जो बहरूपिणी नाम की निषि विद्या सिद्ध कर रही थी और उस समय विश्न उपस्थित करने के अधीन होने से अजगर सपं का वेष धारण करनेवाली इसी बहुरूपिणी विद्या ने जिसे अपने मुख में लील लिया था। इसके पश्चात् परोपकार करने में चतर तजमार ने गराड विद्या द्वारा पवनवेगा राजकुमारी को मुख में लीलने से गोली ताल वाले उस मायामयी अजगर सर्प को पीहित कर दिया । उम बिद्या-सिद्धि में होने वाले विस्तृत विघ्नों के नष्ट हो जाने के अनन्तर ही जब पवनवेगा राजकुमारी ने विद्या सिद्ध कर ली तब उसने मन में यह दृढ़ संकल्प किया-'अवश्य इस जन्म में मेरी प्राणरक्षा करनेवाला यही मेरा प्राणेश्वर ( प्राणनाथ ) होगा । वाद में जम विद्यावरी ने वज्रकुमार का निम्न प्रकार उपदेश दिया-'इसी हिमवन पर्वत के पाश्वंभाग पर बहने वाली नदी के तट पर सूर्य प्रतिमा ( धर्मध्यान विशेष ) का आश्रय किये हुए और तप के प्रभाव से समस्त प्राणियों को आपत्तियां नष्ट करने वाले संयमो आचार्यथो के चरणकमलों के आसन के समीप धताभ्यास करते हा आपको यह विद्या सिद्ध होगी। इसके वाद उस विद्याधरी ने वनकमार के लिए, जो ऐसा प्रतीत होता था-मानों-नवीन कामदेव ही है, प्राणियों को जीवन-दान देने वाली व मनचाही प्रयोजनसिद्धि की योग्यतावाली 'प्रजाति' नाम की विद्या देकर अपनी नगरी के प्रति प्रस्थान किया। पुनः बनझुमार ने उक्त आचार्यश्री के समक्ष नदी के तट पर प्रस्तुत बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की। ऐसा होने से वकुमार का पराक्रम दुसरों के द्वारा प्राप्त होने के अयोग्य दिव्यास्त्ररूपी साधनों से वृद्धिंगता हुआ। अत: उसने अपने चाचा 'पुरन्दरदेव' को, जिसका भाग्य कम ( राजनेतिक ज्ञान सम्पत्ति-झादि ) व पराक्रम ( सैन्य व कोपशक्ति) के अभाव से क्षीण हो गया था, निष्कपट रीति से नष्ट करके शीघ्र ही विजय श्री संबन्धी उत्सव-परम्परा वाली अमरावती नाम की नगरी में अपने पिता भास्कर देव को, जिसके चरणकमलों की सेवा समस्त विद्याघरों द्वारा की गई थी, राज्यासन पर बैठाया । फिर जितेन्द्रिय वजकुमार ने ऐसी पवनवेगा नाम की विद्याधर-राजकुमारी के साथ विवाह किया, जिसने स्वयंवर के मिप से इच्छित पति प्राप्त किया है एवं जो कामदेव के सङ्गम से व्याप्त हुए शृङ्गार से मनोश थी और दूसरी विद्याधर-कन्याओं के साथ विवाह किया। तदनन्तर भाग्यशाली विद्याधर राजा द्वारा १. गृहीताजगरसवेषया। २. अजगरं । ३. मायाजगरसपै । ४. विघ्नः । ५. नदो । ६. विद्यापरी । ७. दत्वा । ८. नदी।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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