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________________ २६३ षष्ठ आश्वांसः कम्प्लाकर इस कलहंसनिवहेन, कलहंसनिवह द्वय रामासमागमेन, रामासमागम इव व स्मरलीलायितेन तदणीजनममोमृगप्रभवमेन योवनेनाच । तदनु वार्ड प्रौढयोवमावतारसारो वज्ज्रकुमारः पितुर्मातुश्च "अंश निवेशा नवस्थाभि विद्याभिः प्रचलितप्रतापगुप्तः तस्यचरलोकाधिक्यः सुवाक्यमूर्तिनामधामस्य मामस्य मदनमदपण्यतास्थ्यलाय म्यारण्य वनदेवत्तावतारवसुमतीमिन्दुमती बुहितरं परिणीय मणिकुण्डल- रत्नशेखर- माणिक्य- शिखण्ड- किरोट-कीर्तन- कौस्तुभ कर्णपूरपुर:भवरकुमारतं पूर्वपरावारपारतरवन्तुरकन्दरावर श्रीहारसवर्धनो र विजयामहोपाध्याय विरहि विहायश्वरो परिमलमलानमृणालजलेजम 'शोकदल शय्यावयितासाथ विद्याघरीसुरसपरिमल बहल मिदमुपनललास्थानं कन्दुकषमोदपरिणताम्बरचरीचरणालककाङ्क्षि” तमदस्त मालमूलासवालालयमेवमिदं रमणीयमेसम्म नोहरमदश्छ सुन्दरमट मिति विनिध्यायन् समाचरितवरविहारः पुनः प्राप्तहिमवतिरिया भारः खेचरीलोचनचन्द्रस्य चन्द्रपुरेन्द्रस्याङ्गती युबतिप्रीतिधाम्नो गरुडवेगनाम्नो विद्याधर पते रति शयरूपनिरूपण पात्री प्रियपुत्री पवनवेगानामसङ्गो प्रायाचलमेखलास '' तिकलतालयनिलोनानं बहुरूपिणों नाम निरवद्यां विद्यामाराष्यम्तोभनबंध विघ्ननिधनमा जाताहै, सरोवर कमल समूह से सुशोभित होता है, कमल-समूह कलहंस श्रेणी से सुशोभित होता है, कलहंस-श्रेणी स्त्री-समागम में सुशोभित होती है और स्त्री-समागम काम क्रीड़ा से सुशोभित होता है । इसके बाद अत्यन्त प्रोह युवावस्था को उत्कृष्ट उत्पत्ति को प्राप्त करनेवाला वच्चकुमार गाता-पिता कुलकम आई हुई निर्दोष विद्याधरों को विद्याओं की प्राप्ति से प्रकृष्ट सामर्थ्यशाली व प्रताप से सुरक्षित हुआ, इससे उसने समस्त विद्याधर- लोक में महता प्राप्त की और 'सुवाक्यमूर्ति' नाम के गृहभूत अपने मामा या दि० के अभिप्राय से बड़े बहनोई की ऐसी 'इन्दुमती' नाम की पुत्री के साथ विवाह किया, जो कि कामोद्रेक से बेचनेयोग्य जवानी के सौन्दर्यरूपी वन को वनदेवता के अवतरण के लिए भूमि सरोखी थी । इसके अन्तर वह मणिकुण्डल, रत्नशेखर, माणिक्य, शिखण्ड, किरीट, कोन, कोस्तुभ और कर्णपूर नाम के विद्याधर जिनमें अग्रेसर हैं, ऐसे विद्याधर कुमारों से युक्त होकर ऐसे विजयार्द्ध पर्वत पर अधिष्ठित हुआ बैठा ), जो कि पूर्व-पश्चिम समुद्र की तरङ्गों से कंची नोत्रो गुफा-भूमियों का धारक है और जो क्रीड़ा रस की वृद्धि से उत्कट है। फिर उक पर्वत तर के विषय में निम्न प्रकार विचार करते हुए उसने वहाँ पर स्वच्छन्द पर्यटन ( विहार - घूमना ) किया यह विजयार्द्ध पर्वत, जिसमें विरहिणी विद्याधरियों के मर्दन से कान्तिहीन मृणाल व कमल वर्तमान हैं, जो अशोक वृक्ष के पत्तों की शय्या में [ इति विलास के लिए ] पतियों द्वारा प्राप्त को हुईं विद्याधरियों के सुरत ( मैथुन) की गंध से प्रचुर है, जो उपवन व लताओं का स्थान है, जो गेंद कीड़ा में तत्पर हुई विद्याधरियों के चरणों में लगे हुए लाक्षारस से चिह्नित है, जो तमाल-मूलों की क्यारियों का आवास स्थान है एवं जो रमणीय, मनोज्ञ व सुन्दर है ।' इसके बाद हिमवन पर्वत पर प्राप्त हुए उसने ऐसी 'पवनवेगा' नामवाली विद्याधर राजकुमारी देखी, जो कि ऐसे 'गरुड़वेग' नाम के विद्याधर राजा को प्रिय पुत्री थी, जो कि विद्याधरियों के नेत्री कुमुदों को विकसित करने के लिए चन्द्र- सरीखा था, जो चन्द्रपुर नामक नगर का स्वामी और 'अङ्गवती' नामकी युवती रानी की प्राप्ति का आश्रय स्थान था जो ( राजकुमारी पवनवेगा ) विशेष सोन्दर्य के निरूपण की पात्र थी, १. स्यान, कुलकमायात । २. नामाभिधानस्य (क० ) । ३. मामः ज्येष्ठभगिनोपलि: 1 ४. उत्कटं । ५. विरहिणी | ६. अोकदलाच्या दयितेन भर्वा आसाद्या प्राप्या या विद्याधरी । १७. चिह्नितं । ८. पर्वत । ९. विस्तारः । १०. वनम् । ★ 'निषद्यां' (ख), टिप्पण्यां तु स्थिलि । ११. बहुरूपिया ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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