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________________ २६२ यास्तिलकचम्पूकाव्ये भगवत्प्रसादसंपन्नः सर्वलक्षणोपपलो वजकुमारो नामालगीरंग शासन निशिया पुन चित्य वयपावत्तस्य भगवतः पर्युपासनं 'पुनरत एव महतोऽधिगतंतवपत्यजतागतो 'भाषपुरमनुससार । भवति चात्र श्लोकः-- अन्तःसारशारीरेषु हितार्यवाहितेहितम् । किं न पादग्निसंयोगः स्वर्णस्वाय तवमनि ॥२१०॥ इत्पुपासकाध्यपने बजकुमारस्य विद्यारसमागमो नाम पञ्चधाः कल्पः । पुमलिभाषा चोपन्छायकायः कङ्कलिपल्लव इव पातकीप्रसवस्तवक हवारणमणिकबुक इव 'ध अन्धूनामानवनिरीक्षितामृतपी यमरितमुखः सखेल करपरम्परया संचार्यमाणः कमेणोत्तानशयवरहसितजानुचत्रमणमदगवालापस्पष्टत्रियापत्रिपाल्पामवस्थामनुभूय ममार्ग इच छामापादपेन, छायापाबप च जलाशयेन, जलाशय इव कमलाकरेण, जैसा निश्वल हुआ प्रोति-युक्त . मन वाला है। यह ऐसा सुखपूर्वक स्थित है मानों-माता की गोदी में हो वर्तमान है। इसके बाद उसने अपनी प्रिया से कहा-'प्रियतमे ! पुत्र का विशेष मनोरथ धारण करनेवाली आपका यह वचकुमार नामका पुत्र पूज्य आचार्य की कृपा से प्राप्त हुआ है, यह समस्त सामुद्रिक शुभ लक्षणों वाला और हमारे वंश को विस्तृत (प्रसिद्ध) करनेवाला पात्र है । पश्चात् उस आचार्य को पूर्व की तरह पूजा करके उसने इसी सोमदस गुरु से बच्चे का वृत्तान्त जानकर बलवाहनपुर को प्रस्थान किया। इस विषय में एक श्लोक है, उसका अर्थ यह है-- आत्मिक शक्ति ( उपसर्ग-सहन की सामथ्र्य ) से युक्त शरीरवाले महापुरुषों पर शत्रुओं द्वारा को हुई चेष्टा ( उपसर्ग-आदि दुष्कृत्य ) उनके हित के लिए होती है, अर्थात--महापुरषों के गुणों की उत्पत्ति का कारण होती है। क्या अग्नि में सपाना सुवर्ण पापाण में सुवर्ण की उत्पत्ति के लिए नहीं होता ? अपितु अवश्य होता है ।। २१० ॥ इस प्रकार उमासकाध्ययन में वञ्चकुमार का विद्याधर से समागम करने वाला यह पन्द्रहवां कल्प समाप्त हुआ। शब के कारण वन कुमार के शरीर को कान्ति देसी लालिमा-युक्त थी जैसे अशोक वृक्ष का किसलय, धातकी वृक्ष के पुष्पों का गुच्छा एवं पधराग मणि की गेंद लालिमा-युक्त होती है। उसका मुख बन्धुजनों से आनन्द पूर्वक देखा जाता था और बच्चे के पोनेलायक अमृत ( जल), दूध व मक्खन-आदि का खजाना था। इसी तरह बन्धुजनों की हस्त परम्परा से क्रीडापूर्वक संचार किये जा रहे उसने क्रमशः ऊपर को मुख किये लेंटा रहना, मन्द-मन्द मुस्काना, घुटनों के बल चलना, गदगद नाणो बोलना और स्पष्ट वचन बोलना इस प्रकार कम में पांच अवस्थाएं अनुभव की। इसके पश्चात् वह युवती रमणियों के मनरूपी मृग के लिए आनन्द-बाग-सरीखे यौवन से वैसा अलङ्कृत ( सुशोभित ) हुआ जैसे मभूमि छायाक्ष से अलङ्कत होती है, छायावृक्ष सरोवर से सुशोभित होता १. योगावसाने। २. एतस्मात् सोमदत्तगुरोः । ३. मातबालकवृत्तान्तः । ४. घलयानपुरं । ५. स्वर्णपाषाणे । ६. रक्त । ७, अशोकपल्लवः। ८. बालस्य पेयं दुग्धादि, मन्यरितवदनः । २, मारवाड़ देशः, यथा मरूस्यसं कामाषुषेण शोमते तथाऽयं यौवनेनालंचक्रे इति सर्वत्र संबंधः । *. दृष्टयान्तालंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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