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________________ षष्ठ आश्वासः २६१ बलवानां सुदेषीं राज्यं च ज्येष्टाय पुत्राय भास्वारदेय नवाय सुप्रभसूरसमीपे संयमी समजनि । ततो गतेषु कतिपयेचिद्दिवसेषु समुत्साहितात्मीय सहायसमूहेन स्वयोर्वविद्यालयून बुविनीतवरिष्ठेन कनिष्ठेनानुजैन पुरंदरदेवेन विहित राज्यापहारः 1 परिजनेन समं स भास्करदेवस्तत्र बलवाहनपुरे शिविरमविनिवेश्य मणिमालया महिष्यानुगतस्तं सोमवसभगवन्तमुपासितुमागतस्तत्पादमूले स्थलकमलमिव तं बालकमवलोष 'अहो महदाश्चर्यम् । यतः कथfranरत्नाकरमपि रत्नम्, अजलाशयमपि कुशेश्श्यम् अनित्धनमपि तेजःपुञ्जम्, अचण्डकरमप्युप्रत्विषम् अनिला"मातुलमपि कमनीयम् अपि च कथमयं बालपक्षलव हव पाणिस्पर्शनापि म्लायस्लावण्यः, कठोरोमणि प्रावणि वाघटित इष रिरंसमानमानसः, मातुरसङ्गगत द्रव सुखेन समास्ते' इति कृतमतिः -- 'प्रियतमे कामं स्तनंधयभूतमनोरथाशस्तदायं वाहन नाम के राजा के साथ, जो कि भूमिगोचरी व हेमपुर नगर का स्वामी एवं समस्त राजाओं द्वारा मानने योग्य आशा वाला था, अपनी सुदेवी नामकी पुत्री का विवाह संस्कार किया और समस्त राज्य भार 'भास्कर देव' नाम के ज्येष्ठ पुत्र को देकर सुप्रभ नाम के आचार्य के समीप दीक्षा धारण करके मुनि हो गया । कुछ दिनों के पश्चात वह भास्करदेव, जिसका राज्य ऐसे पुरन्दरदेव नाम के छोटे भाई द्वारा छीन लिया गया था, जिसने अपना सहायक -समूह उत्साहित किया था, और जो अपनी भुजाओं का दर्म ( गर्व ), राजनैतिक ज्ञान व सैन्य-समूह से युक्त था एवं जो उद्दण्डों में श्रेष्ठ था, अपने कुटुम्बीजनों के साथ उक्त बलवाननामके नगर में ( भगिनोपतिनगर- हेमपुर में ) अपना लवकर डाला और सोमदत्त मुनि की पूजा के लिए अपनी मणिमाला नाम की रानी के साथ आया । वहाँ पर उसने मुनि के पादमूल में स्थलकमल सरीखे उस नवजात शिशु को देखकर विचार किया- 'अहो महान आश्चर्य है, क्योंकि कैसे यह ( नवजात शिशु ) अरत्नाकरमपि ( रत्न-समूह न ) होकर के भी रत्न है, यहाँ पर विरोध मालूम पड़ता है। क्योंकि जो रत्न समूह नहीं है यह रत्न कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो ( शिशु ) अ रत्नाकर है ( समुद्र नहीं है ) और अपि ( निश्चय से ) रहन ( रत्न सरीखा श्रेष्ठ है । जो अन्जलाशयमपि ( ताग के बिना भी ) कुश ( कमल) है | यहाँ पर भी विरोध प्रतीत होता है; क्योंकि तड़ाग के बिना कमल होना संघटित नहीं होता । अतः इसका समाधान यह है कि जो अ-जडाशयं ( मूखं न होकर ) अपि । निश्चय से ) कुशेशाय ( कमल-सा मनोज्ञ ) है | जो अनिन्धनमपि ( ईवन के बिना भी ) तेजःपुञ्ज ( अग्नि ) है । यह भी विरुद्ध है; क्योंकि ईंधन के fear ofग्न होना नितान्त असङ्गत है । अतः इसका परिहार यह है कि जो अनिन्धनं ( ईंधनरूप नहीं है ) और अपि ( निश्चय से ) तेजःपुञ्जम् ( सौन्दर्य राशि ) है । इसी प्रकार जो अचण्डकरमपि ( सूर्य के विना भी) उग्रत्विषं (तक्ष्ण कान्ति युक्त ) है । यह भी विरुद्ध है क्योंकि सूर्य के बिना तीक्ष्णकान्तियुक्त कैसे हो सकता है ? अतः इसका परिहार यह है कि जो अ चण्ड-कर ( उष्ण हस्तशाली न होता हुआ ) अपि ( निश्चय से) उग्रस्त्रिषम् ( विशेष मनोज्ञ कान्ति बाला ) है और जो अनिलामातुलमपि ( चन्द्र न होकर के भी } कमनीय ( मनोज्ञ ) है । यहाँ पर भी विरोध प्रतीत होता है; क्योंकि चन्द्र के बिना कमनीयता ( मनोज्ञता ) संघटित नहीं होती । अतः इसका समाधान यह है कि जो अनिलामातुल ( चन्द्र रूप न होता हुआ ) अपि (निश्चय में) कमनीय (विशेष मनोश ) हैं | यह नवजात शिशु बेसा हस्त के स्पर्श से भी म्लान कान्तिवाला है जैसे नवीन पल्लव हस्त-स्पर्श से भी म्लानकान्तियुक्त होता है। यह तीक्ष्ण ऊम्मावाले पाषाण पर वज्र-घटित १. भास्करदेवः । २. भगिनीपतिनगरे हेमपुरे । ३. समुद्रं विना । ४. इन्धनं विनाऽपि त्रति । ५. न इलामातुल मनिलामातु न चन्द्रं ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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