SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११ चतुर्थ आश्वास किकाभिरिव सुभ्यमानतदाराषनक्रमः शृङ्गारजलधिविजृम्भमाणवत्याभिरिव प्रसर्पमाणमनः कल्लोलः सुरतसूत्राकर्षणसुचिभिरिव पूर्यमाणवक्षःस्थलः, प्रतीहारक्षेत्रलताभिरिव निषेध मामसभाबिस जनकाल:, कोमल एवं निशीथन्याः प्रथमाष्टमभागेऽपरिसमाप्त एव च सेवावसरे विसृज्य भूलतोल्लासेन प्रणामावजितमौलिमणिमकरिकामरोति परिवेषपुनरुपा पठक्षितो सामन्तमहीपतीन् अवलोकन प्रसादानेन मन्त्रिपरिषदम् कालापसंभ्रमेण बलमुख्मान् उपासनोपचारेण पुरोधसम् उपभोगपारितोषिकेण राजकुमारकान् पाववन्दनेन पितृपितामहसंबन्धवतोर्भरतोः अनुव्रजमविनयेन च गुरूस्, आसन्नचरवाभरणारिणानुजविस सभ्यस्तथामहः । गुलिनिदेशन विनोदरवीनापासतो जनस्य मन्दिराणि वर्शयन् सृष्टि प्रवानसं भावितान्तःपुरसमारशकलोकः स्मरनिशिस विशिखाप्रभागानियोपहा विडम्बयतैव विद्रुमोद्भेव शितादम्बरमुल्ला स्यतेव सहषिहरन्तीनां विलोचनानि विस्तारयतेव दानरश्मीनुपचित्व द्वारा प्रियतमा का समागम उसप्रकार भविष्य में प्राप्त किया जा रहा है जिसप्रकार वर को प्रियतमा के गृह पर लानेवाली दूतियों द्वारा प्रियतमा का समागम प्राप्त किया जाता है। जिसे चन्द्रकिरणों द्वारा प्रिया को सेवा परिपाटी उसप्रकार सूचित की जा रही थी जिसकार कामदेवके आगमन के अवसर पर फहराई जानेबाली महोत्सव ध्वजाओं द्वारा कामदेव की सेवा परिपाठी सूचित की जाती है। जिसके चित्तकी संकल्प लक्षणबालो तरङ्गे चन्द्रकिरणों द्वारा उसप्रकार फैलाई जा रहीं थीं जिसप्रकार शृङ्गारसमुद्र में व्याप्त हुई वायुमण्डलियों द्वारा free को संकल्प लक्षणवाली तर फैलाई जाती हैं। जिसका वक्षःस्थल | हृदयस्थल ) प्रस्तुत चन्द्रकिरणों द्वारा उपप्रकार भरा जा रहा था जिसप्रकार मैथुनतन्तुओं के प्रवेश में समर्थ सुइयों द्वारा मेथुनवस्त्र का हृदय भरा जाता है और जिसकी सभा का विसर्जनकाल, प्रस्तुत चन्द्रकिरणों द्वारा उसप्रकार ज्ञापित किया जा रहा था जिसप्रकार द्वारपालों की तलताओं द्वारा सभा का विसर्जनकाल सूचित किया जाता है । जब रात्रिसंबंधी प्रथमप्रहर का मृदु अर्धभाग व्यतीत हो चुका था और जब सेवा का अवसर अर्द्धपरिसमाप्त हुआ था, अर्थात् - जब मेरी सभा के सदस्यों से आधी भेंट हुई थी तब मैंने सेवा में आए हुए सामन्त नरेन्द्रों को, जिनके द्वारा प्रणाम से नम्रीभूत हुए मुकुटों या मस्तकों पर वर्तमान सुवणं घटित रत्नजडित ( आभरणविशेषों ) को किरणों के मण्डल द्वारा चरणावशेषवाली सिहासनभूमि द्विगुणित की गई है, भ्रकुटिलता के उल्लास द्वारा विसर्जित किया। इसकेबाद सम्मुख निरीक्षण से व्याप्त हुए वस्त्राभरणादि के समर्पण द्वारा मन्त्रीपरिषत् का विसर्जन किया। बाद में सेनापतियों की आभरणों के आदर ( दान ) द्वारा विसर्जित करके एवं राजपुरोहित को चरणों में नमस्कार करना आदि सेवा व्यवहार द्वारा विसर्जित किया। तत्पश्चात् राजपुत्रों की वस्त्राभरणादि उपभोग सामग्री के पारितोषिक दान द्वारा विदाई करके पिता ( यशोर्घमहाराज ) तथा पितामह ( पिता के पिता - यणोबन्धु-महाराज ) से संबंध रखनेवाली वृद्ध स्त्रियों की पादवन्दनपुर्वक विदाई करके गुरुजनों की पोछे गमन तथा पूजनपूर्वक विदाई की। इसके बाद मैं ( यशोधर महाराज ), जिसने समीपवर्ती चेंबरढोरनेवाली स्त्रियों के स्कन्ध- प्रदेश पर बांया भुजादण्ड स्थापित किया है, दूसरी हस्ताङ्गुलि के निदेश ( आज्ञा ) द्वारा क्रोडागजों के समीपवर्ती जनों ( महावत वगैरह ) के लिए गृहस्थान दिखा रहा था । अर्थात् – 'आप लोग यहाँ वैठिए इसत्रकार कह रहा था । और इसके बाद मैंने सन्मुख अवलोकन द्वारा अन्तःपुर संबंधी रक्षक - स्त्रियों का समूह अनुकूल किया । इसके बाद मैं कर्पूर व तेल से जलाए हुए व हस्तों द्वारा धारण किये हुए ऐसे दीपक मण्डल से वेष्टित हुआ। जो कामदेव के तीक्ष्णवाणों के अग्रभागों का उपहास करता हुआ सरीखा सुशोभित हो रहा था । जी प्रवालवृक्ष के अंकुरों के अग्रभागों के विस्तार को तिरस्कृत कर रहा था। जो साथ गमन करती हुईं कामिनियों
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy