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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये प्रवृत्तासु च दिवसथ्यापारविगुणितानुरागवेगवृत्तानु नगरमिथुनानामनगरसरहस्पगोष्ठीषु,
निखिलजनमनोलिनसंभव सकलभवनोत्पत्तिप्रजापते रतिरमण प्रियतमाषरामृतवर्षावग्रहावफापजन्मनः कृशानुकणगर्भानिब कराविकिरतोऽमुष्मादुत्पातरधिमण्डलाचन्द्रात्स्वयमेव शुकवारःकमलिनीवनापि कष्टतरमवस्थान्तरमुपगतवति विरहिणीजने कि पञ्चभिरपि बाणभवतः प्रतुं युक्तमिति प्रबसितधिकवनितामिकपालभ्यमाने च कुसुम
धनुषि,
अहमपि तबाही मनसिमातिशामिशरीरपरिकर कामिनीमुखकमलमधुकर विभ्रमविवृक्षयेव विलासिनीनां नयनेषु प्रतिफलन्तीभिः लावण्यरसपिपासयेव गोनेणु विष्कमा विमान नि:पमा गयेनारे परिस्फुरन्तोभिः परामर्शमनीषयेष स्तनतटेषु चोहण्डया प्रवृत्ताभिरमृतमरीचिदीधितिभिराज्यातिभिरिव संध्यमाणमदनवनः, रतिरहस्यक्या स्याभिरिव शिथिलोक्रियमाणमानबन्धनः, प्रत्यायमतिकाभिरिध संपाथमानप्रियतमासमागमः, कुसुमारप्रवेशोत्सवपता
जब उज्जयिनी नगरी के स्त्री-पुरुषों के जोड़ों सम्बन्धी कामरस को गोप्यतत्व-बाणिं, प्रवृत्त हो रही थीं, जो कि सेवा, कृषि व व्यापार-आदि दैनिक कर्तव्यों द्वारा दुगुने हुए अकृत्रिम स्नेह की उत्कण्ठा से प्रवृत्त हुई थी।
जब प्रवासी पथिकों की विरहिणी उत्तम नायिवाओं द्वारा, कामदेव निम्नप्रकार से निन्दा-युक्त उलाहना के वचनों में प्राप्त किया जा रहा था 1 'हे समस्त लोक के हृदय कमल में उत्पन्न होनेवाले व हे समस्त पृथिवी मण्डल सम्बन्धी उत्पत्ति के प्रजापति ( ब्रह्मा ) एवं हे रतिवल्लभ !
ऐसी विरहिणी स्त्रियों के समूह पर पांच बाणों ( उन्माद, मोहन, संतापन, शोषण व मारण ) द्वारा निठुर प्रहार करने का तेरा यह कार्य क्या उचित है ? जो कि स्वयं शुष्क सरोबर सम्बन्धी कमलिनी-चन से भो कष्टतर अवस्थान्तर को प्राप्त हुआ है और जो इस प्रत्यक्ष दष्टि-गोचर हुए चन्द्र से, जो विरहिणी स्त्रियों के लिए चन्द्र न होकर उत्पात सम्बन्धी सूर्य-मण्डल है, एवं जिसमें प्रियतम के ऑष्ठपान पीयूष की वर्षा का प्रतिबन्ध ( वृष्टि रोकना ) पाया जाता है एवं जो अग्नि कणों से भरे हुए मध्य प्रदेशों के समान किरणों को फेंक रहा है, विशेष कष्टतर अवस्थान्तर को प्राप्त हुआ है।
कामदेव से भी अतिशयवान् शरीर समुदायवाले तथा कमनीय कामिनियों के मुखरूप कमलों के मकरन्द-आस्वादन करने में भ्रमर-स्वरूप ऐसे है मारिदत्त महाराज | उस चन्द्रोदय काल में मैं भी, जिसकी कामाग्नि ऐसी चन्द्र किरणों द्वारा उसप्रकार उद्दीपित की जा रही थी जिसप्रकार घो की आहुतियों द्वारा अग्नि उद्दोपित की जाती है, अमृतमति महादेवी के महल द्वार पर आया, जो (चन्द्रकिरण ), ऐसी मालूम पड़ती थों-मानी--भ्रटि-संचालन की शोभा को देखने की इच्छा से ही रसिक कामिनियों के नेत्रों में प्रतिविम्बित हो रही बों। जो, लावण्यरूपी रस के पोने की इच्छा से ही मानों-कमनीय कामिनियों के गालोंपर विलुण्ठन कर रही थीं। जो, ओठों के चूमने की अभिलाषा-बुद्धि से ही मानों-कामिनियों के अधरों पर चमत्कृत हो रही थीं।
जो कुचकलशों के स्पर्श करने की बुद्धि से ही मानों-स्त्रियों के कुच तटों पर दण्डाकाररूप से प्रवृत्त हुई थी।
जिसका मानवन्धन चन्द्रकिरणों द्वारा उसप्रकार शिथिल किया जा रहा था जिसप्रकार संभोगक्रीड़ा सम्बन्धी गोप्यतत्व की शिक्षा देनेवाली सखियों द्वारा मानबन्धन शिथिल किया जाता है। जिसे चन्द्रकिरणों