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________________ १२ यशस्तिलक काव्ये तैवाधरवलानि रूपन्दयलेव वक्नलावण्यमवस्फारयतेष वक्षोजमण्डलानि तरलयतेष त्रिवलितरङ्गान् गम्भीरयशेष नाभीकुहराणि ariana नखशुक्त: समन्तात्प्रभापटलपल्लवितानिव च कुर्वताशरणमणीत् कर्पूरतंलप्रबोधिलेन करवोपिकाचक्रवालेन परिवृतः, तारामण मध्यगतः शर्वरीपतिरिय, कल्पवल्लरी प्रदालपरिवारितः सुरतपरिय, कनककेलकी फुलान्तराल वि लासरसः कलहंस इव तत्कालोचितालापनपेशनमंकेलिकिलहरु/माणप्रसाद परम्परः मन्दार सिन्धुर व पुरधारिवीवारिवात्मभूमी नास्मि । तस्मश्यामृतमतिमहादेबोलावण्यशेषाचि बोत्पलया भूविजृम्भिते नान्तर्वशिकानां घापकोटीरिव बिफल्यम्या, नयनविनमेण बाणाम्बरमिव व निरारक्षाणया, वचनसौष्ठवे गोपुरपरिघानिव प्रत्याविधस्या, स्तनाभोगेन कपाटयुगलमिवापकुर्वाणया, रोमराजिनिर्गमेन क्षेत्रलतामिवामिभिपन्त्या उभारेण तोरणस्तम्भानिय विजयमानया, मेलाजालेन वन्दनमाला मिश्र पुनरारकयन्त्या चरणनखस्फुरितेन रङ्गावलमणीनिवासहमानया, बेकचयकलक्ष्य दक्षिणेतर कक्षान्तरविनि के नेत्रों को उल्लासित करता हुआ जैसा व उनको दन्तकिरणों को विस्तारित करता हुआ-सा तथा उनके ओष्ठyear को पुष्ट करता हुआ सरीखा शोभायमान हो रहा था। जो साथ जाती हुई स्त्रियों की मुखकान्ति को कुछ संचालित करता हुआ जेसा, एवं उनके स्तन चक्रबालों को चारों ओर से वृद्धिंगत करता हुआ जैसा तथा उनकी निलिरूप तरों को चञ्चल करता हुआ सरीखा सुशोभित हो रहा था । जो उनके नाभिच्छिद्रों को गम्भीर करता हुआ जैसा, तथा उनके नखरूपी सीपों को विस्तारित करता हुआ सरीखा सुशोभित हो रहा था और जो साथ जाती हुई स्त्रियों के आभरणों के मणियों को प्रभापटलों से उल्लासित करता हुआ जैसा सुशोभित हो रहा था। उस अवसर पर मैं उसप्रकार सुशोभित हो रहा था जिसप्रकार तारागणों के मध्यवर्ती चन्द्र सुशोभित होता है और जिसप्रकार कल्पवेलों से वेष्टित हुआ कल्पवृक्ष सुशोभित होता है एवं जिसप्रकार सुवर्णकेतकी मुकुलों के मध्यवर्ती विलासरसवाला राजहंस सुशोभित होता है । मैं, जिससे नवसरोचित वचन भाषण में मनोहर नर्म ( हँसी मजाक ) क्रीड़ा में चतुर पुरुषों द्वारा बारम्बार उचित दानपरम्परा ग्रहण को जा रही है एवं जिसके लिए बनेसर द्वारपालों द्वारा मार्गभूमि प्रदर्शित की जा रही श्री, मदोन्मत्त हाथी-सरोखा चरणमार्ग से ही अमृत्तमति महादेवी के द्वारपर आया ! T इसके बाद हे मारिदत्त महाराज । ऐसी द्वारपालिका द्वारा कुछ कालक्षेप कराये जा रहे मैंने उस 'मनसिजविलासहंस निवासतामरस' ( कामसेवन रूपी हंस की स्थिति के लिए कमल सरीखा ) नाम के राजमहल में वर्तमान पलङ्ग को अलंकृत किया। जो ( द्वारपालिका), मानों-- अमृतमति महादेवी के लावण्यशेष से उत्पन्न हुई थी, अर्थात् — जो कुछ महादेवी- सरीखी थी । जो प्रकुटि-संचालनादि व्यापार से रानियों की रक्षार्थ नियुक्त हुए पुरुषों के धनुषसंबंधी अग्रभागों को तिरस्कृत करती हुई सरीखी सुशोभित हो रही थी । जो नेत्रों की शोभा द्वारा उक्त पुरुषों के बाणों के विस्तार को निराकृत करती हुई-सी शोभायमान हो रही थी । जो बचन चातुर्य द्वारा प्रतोली- द्वार के अगों को निराकृत करती हुई-सी थी। जो स्तनों के उद्घाटन द्वारा दोनों किवाड़ों को उद्घा टित करती हुई जैसी सुशोभित हो रही थी। जो रोमराज के दिखाने से रानियों की रक्षार्थ नियुक्त हुए पुरुषों की बेंतलता को तिरस्कृत करती हुई सरीखी सुशोभित हो रही थी। जो उरुस्थल से तीरणखम्मों को निराकृत करतो हुई-सी थी । जो मेखलाजाल ( करधोनो ) की रचना द्वारा वन्दनमाला को द्विगुणित करती हुई-सी सुशोभित हो रही थी। जो चरण नखों के तेज द्वारा रङ्गावलि के मणियों को निरस्कृत करती हुई-सी यो | जिसने वैकक' ( उत्तरीय वस्त्र ) सरोखे दिखाई देनेवाले और दाहिनी व वाई बगलों के मध्यभागपर १. तदुक्तं तिर्यग्वक्षसि विक्षिप्तं वस्त्रं वैकक्ष्यकमुच्यते । सं० टी० ० २४ से संकलित - सम्पादक ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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