SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थं आश्वास १३ क्षिप्त कौक्षे किया प्रतापानुगतमेव मन्मयकीय मुजराराधिष्ठितयेव कल्पलतिकमा, सतडिद्गुणयेव बलाहक मालया लान्छन सालंकृतमेव चन्द्रकला, मधुकर कुलकलितमेव पारिजातमञ्जरिकया, विकृताकल्परामणीयकेन सकुतूहलमयलोकना निःशेष विषयभाषा वेदधिषणया, प्रणयशठभावेनार्ष मूर्धप्रणाम गलितकर्णावतंसया प्रतीहारपालिका मनाम्बिलम्यमानः 'किमकाण्डे कठिनहृदया देवीं । धतस्त्वमेषं संवृतासि ।' 'कथयामि देवस्य किलाद्या परंथ कावायिन्यमूदिति निशम्य देवी महति फोपे कृताशेवास्ते । विज्ञापयत्यपि च मन्मुखेन देवस्य तथैव पर्याप्तत्वाबलमस्मासु कितवोपचारदिन इति सचाटुकारं देव, बेबस्योपरि प्रसाधनाथ देव्याः पावयोः पतितावास्तवलतिकाविलं मे भालं कि न पश्यति देवः । अपि च नयननदनिवार्नरेभिरप्रवाहैः स्तनकलामुखाद्यव्यप्रषारासहस्रैः । सुनु हृदयमध्यस्थे प्रियेऽस्मिन् भवत्या कथमिह वहिरेषा सज्यते मज्जनयोः ॥ ३ ॥ उत्तरीय वस्त्र-जैसे धारण किये हुए खड्गों को धारण किया था। इससे जो ऐसी मालूम पड़ती थी- मानोंप्रताप सहित कामदेव की कीर्ति ही है। अथवा मानों दोनों सापों से वेष्टित हुई चन्दनवल्ली हो है । अथवा मानों - बिजली के गुणसे संयुक्त हुई मेघमाला हो है। जो चन्द्रचिह्न रेखा से अलंकृत हुई चन्द्रकला-सरीखी व भ्रमर श्रेणी से हुई कल्पवृक्ष की लता सरीखी सुशोभित हो रही थी । जो खड्गधारण करने से विकृत वैिप के सौन्दर्य से कौतुक सहित निरीक्षण करने योग्य थी। जो समस्त देशों की भाषाओं तथा वेपों में बुद्धि धारण करनेवाली थी। थोड़ा स्नेह दिखाने से थोड़े मस्तक मात्रके नमाने से जिसका कर्णपूर नीचे जमीन पर गिर गया था। एवं जिसने महारानी के प्रति राजा साहब का योग्य अनुराग जान लिया है तथा 'राजन् ! आप विशेष बलवान हैं, अतः में आपको रोकने में समर्थ नहीं है इसप्रकार कहकर जिसने हास्यपूर्वक गृहका देहलीप्रदेश छोड़ दिया है। [ उक्त महल में बर्तमान पलङ्ग को अलंकृत करने के पूर्व ] है मारिदत्त महाराज ! उक्त द्वारपालिका द्वारा कुछ कालक्षेप कराए हुए मैंने उससे कहा – 'हे द्वारपालिके । क्या अमृतमति महादेवी असमय में मेरे प्रति कठोर हृदयवाली है ? अर्थात्- क्या प्रस्तुत महादेवी का मेरे ऊपर प्रेम नहीं है ? जिससे तुम मेरे प्रति इसप्रकार को नमस्कार न करनेवाली व मायाचारिणी हो रहीं हो । उक्त बात को सुनकर द्वारपालिका ने राजा से कहा 'में आपसे कहती हूँ' अर्थात् — आप मेरे वचन सुनिए । 'आज कोई दूसरी ही स्त्री आप से स्नेह प्रकट करनेवाली हुई हैं' | इस बात को कहीं से सुनकर आज अमृतमति महादेवी आप से विशेष कुपित-सी हो रही है और मेरे मुख से आपको निम्नप्रकार विज्ञापित करती है। 'asi ही प्रिया पर्याप्त है, अतः हमारे साथ कुटिलता का बर्तावपूर्ण मायाचार करने से कोई लाभ नहीं ।' 'हे राजन् ! मेरे, जो कि आपके ऊपर महादेवी को प्रसन्न करने के लिए उसके चरण कमलों में पड़ी थी, ललाट को, जो कि देवी के चरणकमलों में लगे हुए लाक्षारस से लिप्स हुआ है, क्या स्वामी नहीं देख रहे हैं ।' विशेषता यह है कि— [ प्रकरण - है राजन् ! एक अवसर पर मैंने प्रस्तुत महादेवी से कहा था--]
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy