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________________ यशस्सिलकचम्पूकाव्ये ___खदिरिक, मामपि महादेवी प्रत्येवमुपालभेयाः । ननु विविसमेवैतद्देष्या यया न स्वप्नेऽपि मे विप्रलम्मनकराः काश्चिपि प्रवृतपः । कितु तववेवमशेषं पूर्तविलसितम् । त्वं हिं न भवसि सामान्येति किमह न जाने । कुलागतं च सब परनरप्रसारणे परमनपुण्यम् । अयमपि व जनो नन्वशेषविटट्टिनोचूर्णघटितवेह एव न भवति भवात्याश्चेष्टिताना भूमिः । तदलमत्र मुषाप्रयासेन । गृहाणेवं मुखसाम्बूलम् । इतः समागमछ । भव पुरोसिनी । मा प्रहस्त्रियामपोरिषा. षयोमध्ये संध्येय समागमविलम्बिनी' प्रति विवितामुगतनावया, 'एलवानाल' देवः । नाहमलं निवारयितुम्' इति सपरिहासं समुत्सृष्टगहावग्रहणीवेशया, निषिध्य व तियंपप्रवृत्तकुण्डलमणि किरणपल्लवितरलांशुषलयेनोत्तालतरलागुस्सिना हस्तेन मया सहागमछम्तमलिसमानुचरबलमोधवाकेकरनिरीक्षणेन मनाप्रतित्यगर्भसंभाषणेन ५ प्रतिपदमुल्लास्यमानमानसः, फक्षान्तराणि वशया बनगा इच । सया नीयमानः, सहेलमन्तःपुरप्रचारिभिरस्मदर्शनप्रवृत्तमनोनुरागर्गः कुलवामन 'हे शोभन शरीरवाली अमृतमति महादेवी ! जब यह प्रत्यक्षीभूत तुम्हारा प्राणवल्लभ तुम्हारे हृदय के मध्य स्थित है, अर्थात्-तुम्हारे समीपवर्ती हो रहा है, तब आपके द्वारा इस तुम्हारे शरीर पर यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली ऐसे आंसुओं के प्रवाहों द्वारा, जिनके आदिकारण दोनों नेत्ररूपी तालाब हैं, और जो प्रत्यक्षा दृष्टिगोचर हो रहे हैं एवं जिनको हजारों धाराएँ कुचकलशों के मुखों के अग्रभागों पर व्यापारवाली हैं, होनेवाली स्नानलक्ष्मो बाह्म में क्यों रची जा रही है ? भावार्थ-प्रस्तुत द्वारपालिका यशोधर महाराज से कहती है कि हे राजन् ! एक अवसर पर मैने रानी साहब से कहा था कि हे शोभन शरीरशालिनि । जब तुम्हारा भर्ता तुम्हारे चित्त में स्थित है तब यह रुदनलक्षणनाली स्नानलक्ष्मी तेरे द्वारा क्यों रची जा रही है ? ॥३॥ [ उक्त द्वारपाली की बात सुनकर ] प्रस्तुत राजा ने कहा-हे धूर्त खदिरिके ! तुम अमृतमति महादेवी से इस माया-प्रकार से मेरी निन्दा के वचन कहती हो! अहो घूर्त खदिरिके। देवो को विदित हो है कि मेरों कोई भी प्रवृत्तियों स्वप्न में भी फिर जाग्रत अवस्था का तो कहना ही क्या है, वञ्चना करनेवाली नहीं है, तब तो तुम्हारी ही यह सब प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली वञ्चना की चेष्टा है । तुम सब लोक की तरह सामान्य नहीं हो, इस बात को क्या मैं नहीं जानता? तुम्हारी मुझे और दूसरे लोगों के उगने को विशेष चतुराई कुल परम्परा से चली आ रही है। यह मानव भी ( यशोधर महाराज भी ) निश्चम से समस्त कामुक व कुट्टिनियों के चूर्ण से घड़े हुए-रचे हुए शरीरवाला ही है, इसलिए आपको वञ्चना-क्रियाओं का पात्र नहीं हो सकता। अत: मुझ सरीखे मनुष्य में निष्फल वञ्चना करने के प्रयास से कोई लाभ नहीं है। मेरे इस प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुए मुख-ताम्बूल के उद्गार को स्वीकार करो। इस स्थान से मेरी दृष्टि के सम्मुख आओ और अग्रगामिनी होओ। तुम हम दोनों के मध्य में उसप्रकार समागम में विलम्ब करनेवाली मत होओ जिसप्रकार दिन व रात्रि के मध्य में संध्या उनके समागम में विलम्ब करनेवाली होती है । इसके बाद मैंने ऐसे हाथ द्वारा, जिसमें चक्र के आकार प्रवृत्त हुई कुण्डल-मणियों को किरणों द्वारा रत्न किरणों से व्याप्त हुए कङ्कण, पल्लव युक्त किये गए हैं और जिसकी अंगुलियाँ उत्सुक व चञ्चल हैं, मेरे साथ आए हुए समस्त किंकर-समूह को रोका । अर्थात् 'आप लोग यहीं उहरिए' ऐसा कहते हुए रोका । इसके बाद में, जिसका मन, कुछ कटाक्षों के देखने द्वारा और ऐसे संभाषण द्वारा, जिसके मध्य संमोग सम्बन्धी गोप्यतत्व वर्तमान है, प्रत्येक चरण-स्थापन में विशेष उल्लास में प्राप्त किया जा रहा था। इसके बाद मैं उस द्वारपालिका द्वारा उसप्रकार कक्षान्तरों ( गृह-प्रकोष्ठों-राजमहल के मध्यवर्ती कमरों) में लाया जा रहा था जिसप्रकार हथिनी द्वारा जंगली हाथी कल्पान्तरों ( वन के मध्य भागों) में लाया जाता १. रूपकालंकारः।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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