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________________ चतुर्थ आश्वास किरातकञ्चकौभिः कृतेन विकृतालापनर्तनकतवन विकास्थमानलोधनः, समन्तायाकुलाफुलविरलीमवत्सकलपरिणने, पक्षकदमखधितकपुरदलहन्तुरितमातरूपमित्तिनि मृगमदशकलोपलिप्तरजसवातायनविवरविहरमाणसमोरसुरमिते सान्द्रस्यन्दसमाजितामलकवेहलीशिरसि धुणरसाणितमरकलपरागपरिकल्पितभूमितलमागे मनाइमोबमानमालतीमुफुलमितितरङ्गालिनि सापाला माणसरितवितानपर्यन्सावलम्बितमुक्ताफलमाले कूचस्यानविनिर्देशितप्रसनसमूहामीवमिलितालिकुलमारिणि संचारिमहेमकरयकांसोत्तसितमुखपासतामूलकपिलिके तुहिनतविनिर्मितवलीकान्तरमुक्तासुमनक्सौरभाषिवास्यमानसुरतापमानिकोपकरणवस्तुनि मणिपिञ्जरोपविष्टशकसारिकामिनकामाममश्मप्रयासनाये सारसजितफलकोपिणा प्रसाथितकृतपवावनयपलेम समुबगकव्यम्नमाधमनकविलोपिना कलमूकलोकन पर्यालितसौचिवल्लपरिषद विविषमणिमनोहराषिरोहिणीसरणिके सरतप्तलप्रासादोपरितनभागवत्तिनि मनसिजविलासहंसनिवाससामरसनामनि वासभवने, सरसचवमसरुस्तम्भिकाचतुष्टयमध्यावतीर्णमुल्लपपारापतपतङ्गपेशलप्रतिपादोपरिविन्यस्त हैं और मैं कुबड़ों, बौनों, भीलों व कन्चुकिमों द्वारा, जो कि एक साथ अथवा लीला-सहित अन्तः पुर में संचार करनेवाले हैं और हमारे देखने से जिन्हें हृदय में कृत्रिम स्नेह व उत्कण्ठा उत्पन्न हुई है, क्रमशः किये हुए विकृत ( विचित्र कृत), व भाषण, नृत्य ब कैतव द्वारा उल्लास-युक्त नेत्रोंवाला हुआ। इसके बाद मैंने ऐसे 'मनसिज-बिलासहसनिवासतामरस' नाम के महल में, वर्तमान पलङ्ग को अलङ्कृत किया, जिसमें (प्रस्तुत महल में ), समस्त सेवक अत्यन्त व्याकुल होते हुए दूर हो रहे थे। जिसको सुवर्ण-भित्तियाँ, यक्षकर्दम ( कपूर, अगर, कस्तुरी व कोल इनको समभाग मिलाकर बनाया हुआ लेपन अथवा कुङ्कम व श्रीखण्ड ) से लिप्त हुईं व कर्पूर खण्डों से ज्याप्त होने के कारण उत्पन्न हुए दाँतीबालो-सौं प्रतीत हो रही थीं। जो, कस्तूरो-खण्डों से लिप्त हुए चांदी के झरोखों के छिद्रों से संचार करती हुई वायु से सुगन्धित था। जिसका स्फटिक मणियोंका देहलो-मस्तक विलेपन विशेष के रस से लिप्स था। जिसका भूमि-तलभाग, कुङ्कुमद्रव से अध्यक्त लालिमावाले नौल मणियों के चूर्ण से रचा गया था। जहां पर रङ्गावली (नानारंग के चूर्ण से रचा हुआ मण्डन-विशेष) कुछ विकसित होती हुई मालतो पुष्पों की कलियों से सुशोभित थी। जहां पर चंदोवा के पर्यन्त भाग पर लटकी हुई मोतियों को मालाएं निरन्तर जलते हुए काला गुरु धूप के धुएं से धूसरित हो रही थीं । जहाँ पर सॅभोग सम्वन्धी उपकरणों के स्थापन प्रदेश पर रक्खी हुई नाना प्रकार को पुष्प राशियों की सुगन्धि से एकत्रित हुई भ्रमर-श्रेणी का शङ्कार ( गूंजना ) हो रहा था । जहाँ पर मुख को सुगन्धित करनेवाली सुगन्धि युक्त ताम्बूल की कपिलिका रांचरण करनेवाली सुवर्ण-पुतली का कर्णपूररूप हुई है। जहाँ पर मैथुन के अखीर में होनेवालों उपकरण बस्तुएँ ( व्यञ्जनादि ), कपूर वृक्षों से रची हुई पट्टियों के मध्य भागों से बंधी हुई पुष्प मालाओं की सुगन्धि से सुगन्धित की जा रही हैं। जो रत्न-घटित्त पिञ्जरों में बैठी हई तोता-मैना के जोड़ों द्वारा कहीं जानेवाली काम-कथाओं से सहित है। जहाँ पर ऐसे नपुंसक-समूह द्वारा कञ्चुकियों को परिषत् व्याकुलित हो रही है, जो खदिरादि वृक्ष के तख्ते को उठानेवाला और संवारे हुए बाजे को बजाने में चञ्चल है तथा जो संपुटक ( सन्दूक ), पंखे व उदकपान को दूर करनेवाला है और जिसमें नाना प्रकार के रत्नों की मनोहर सीढ़ियों का मार्ग वर्तमान है एवं जो सात तल्लेवाले राजमहल के ऊपर आठवें तल्ले पर वर्तमान है। अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज 1 मैंने किस प्रकार के पलंग को अलकृत किया? जो ( पलंग), नवीन चन्दन वृक्ष के छोटे चार पायों के मध्य में प्राप्त हुआ है। अर्थात्-जिसमें उच्च प्रकार के चार पांव
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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