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________________ यशस्तिलफचम्पूकाव्ये पादमण्डलं तरङ्गितबुकलपटप्रसाधिताहंसतूलिकमन्सरातरा हरिचन्दनस्वासकाङ्कितपर्यन्तमपिरलोपान्तपरिकल्पितघूपपिकाविवरविसरमपटलमुभयपाश्चोंपदर्शितमणिप्रत्रीपिकमुश्वानहोत्तम्भितपूर्वापरभागमुत्फुल्लकमलाकरमिव सरोवरमन्नुघरपरिवारितमिष शंभुशिखरिणमरासुग्गुरुमध्यतिनमिव तुहिनकिरणमषरोत्तरसैतुबन्धावपद्धमिव भन्नाकिनीप्रवाहमुच्छवसिलमात्रेणापि तरलतरान्तरालविहिनसुखसंवेशभनेकविस्मयनीयस्मरग्रहावेशकर पन्त्रसुन्वरमन्यदिशम् ।। ___ अतः शयनतप्तमसंकुर्वतीमपरामिव लक्ष्मीम्, अनिमिषनिवासान्नरलोफसुप्ततृष्णावतीर्णामिय सरस्वती, अचलारूपपरिणतामिव कलासमितिम्, उपात्तमानुषोभावाभिव सागराम्बराम, अतिरोहितारमशरीरामिव राज्याधिवेवताम्, अहिलसुखसारखानिमिय स्वीत्वमुपागताम, अनङ्गतोरणजमिव पापालनाभिरामाम्, अनङ्गभूषणानिमिष स्फुरन्नखमणिपरम्पराम, अनङ्गशरविमिव पूर्वानुवृतजडाभोपाम्, अनङ्गमनपिकामियोतस्तम्भश्रिताम्, अनङ्गयोगाम्यासभूमिमिष हैं। उत्कर्ष रूप से अव्यक्त शब्द करते हुए कबूतरपक्षियों से मनोहर प्रतीत होनेवाले प्रतिपादों ( चार पांवों के नीचे स्थित हुए पात्रों) के ऊपर जिसमें पलंग के चारों पाँव' स्थापित किये गए हैं। जिसपर लहरों से व्याप्त हुआ--अर्थात्-मछली की चित्रकारी होने के कारण नीचा-ऊँचा प्रतीत होनेवाला- रेशमी वस्त्रों से निर्मित हुआ प्रास्तरण-विशेष ( गद्दा ) बिला हुआ है। जिसका प्रान्तभाग बीच-बीच में परमोत्तम चन्दन के हस्तप्रतिबिम्बों ( हाथाओं ) से चिह्नित था, अतः जो उसप्रकार शोभायमान हो रहा था जिसप्रकार प्रफुल्लित कमलसमूहवाला तालाब सुशोभित होता है। जहाँपर अविच्छिन्न ( कट के निकटवर्ती ) ममीप में रचे हुए छोटे धूप-घड़ों के छिद्रों से फैलते हुए धूमपटल वर्तमान हैं, इसलिए जो उसप्रकार सुशोभित हो रहा था, जिसप्रकार कालमेघ से वेष्टित हुआ कैलाशपर्वत सुशोभित होता है । जिसके बाएं व दाहिने भाग के समीप रत्नों के छोटेछोटे दीपक स्थापित किये गए हैं, इसलिए जो उसप्रकार सुशोभित हो रहा था जिसप्रकार बृहस्पति और शुक्रके मध्यवर्ती परिपूर्ण चन्द्रमण्डल मुशोभित होता है । जिसके पूर्व व अपर भाग–अर्थात्-शिरभाग व पादभाग, तकियों के जोड़ों द्वारा रोक थाम किये गए थे, इसलिए जो उसप्रकार सुशोभित हो रहा था जिसप्रकार अधोभाग व पूर्वभाग पर स्थित हुए सेतु-बन्धों से रुका हुआ गङ्गा नदी का पूर सुशोभित होता है। जहां पर उल्ल. सन मात्र से ही विशेष चञ्चल मध्यभाग द्वारा अनायास सुरत ( मैथुन ) किया गया है, इसीप्रकार जो मनेक आश्चर्य-जनक कामदेवरूपी पिशाच-प्रवेशों को करनेवाला है। उक्त प्रकार के पलंग को अलङ्कृत करने के बाद [हे मारिदत्त महाराज ! ] मैंने अपने पलंग पर बैठो हुई उस प्रसिद्ध ऐसी अमृतमति महादेवी को देखा, जो ऐसी प्रतीत हो रही थी-मानों-दुसरी राज्य श्री ही है । अश्रवा मानों-मनुष्य लोक की सुखाभिलाषा से स्वर्ग लोक से आई हुई सरस्वती ही है । अथवा मानोंस्त्रीरूप से उत्पन्न हुई बहत्तर कलाओं की श्रेणी ही है । जो ऐसी मालूम पड़तो थो-मानों-मानुषो स्यो पर्याय घारिणी पृथिवी ही है। अथवा मानों-अपना स्वरूप प्रकट करनेवाली राज्य की अधिष्ठात्री देवी ही है । अथवा मानों..स्त्रीत्व को प्राप्त हुई समस्त सुखसारों की खानि ही है। जो उसप्रकार चरणरूपी पल्लबों से मनोज्ञ थी जिसप्रकार कामदेव की तोरणमाला पल्लवों से मनोज होती है। जो उसप्रकार देदीप्यमान नखरूपी मणि. माला से अलकृत थी जिसप्रकार कामदेव की भूषणभूमि मणिमालासे अलङ्कृत होती है। जिसकी जवाओं का विस्तार उसप्रकार क्रमशः पूर्वानुवृत्त ( गो-पुच्छ को आकृति-सरोखा) था जिसप्रकार कामदेव के बाणों का भाता पूर्वानुवृत्त-फैला हुआ होता है। जो उसप्रकार घुटनों के ऊपरी भागरूपो खम्भों से आश्रित थी जिसप्रकार कामदेव को उपकारिका वसति खम्भों से आश्रित होती है। जिसका जघन-स्थल उसप्रकार विस्तीर्ण १. यथासंस्थोपमालंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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