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चतुर्थ आश्वास
विशालघनस्याम्, अनङ्गजयपताकामित्र विततरोमरानिष्टिकाम् अमङ्गल केलियापिकामित्र गम्भीरनाभिमण्डलाम् अनङ्गावतरणवसतिमिथ बलिविराजिताम्, अनङ्गामुपयष्टिमित्र मुष्टिमित मध्यभागाम्, अनङ्गशरासार वृष्टिमिव परिपूर्णपयोधराम् अनयनवसुधामिव भुजलतानन्दिनीम्, मनङ्गादेशपत्रिका भिवालक लिपिलिखित भाल मध्याम्, अभ्युत्तिष्ठन्तीमिव भ्रूलताविलासेन, स्थागतप्रणयिनीमिष विस्वाधरस्कुरितेन विहितासन प्रजानामिव नोवीनिवेशोल्लासेन, पार्थक्रयोपरा fishing निवारितस्तनखप्रभाप्रवाहेण, अर्धमुत्क्षिपत्तीमिव प्रत्यङ्गनिर्गत रोमाञ्चकदन्वेन, संपादित मधुपर्काम बालकचल्लरीब्यापारितत्वाहुमूलप्रदर्शनेन आचामयन्तीमिव च शृङ्गाररसोत्तरङ्गितः कटाक्ष बोलिले, भूतवरसकसज्जिकायिति साममृमहादेषी भपश्यम् । आहो पण महारष्यनिर्गमनादिव तदा हि मे समुल्लसितं हृवयेन, दिव्याञ्जनपवेहाबिय प्रसन्नं चक्षुषा, अमृतवर्षाभिषेकादि प्रशान्तं देहेन सिद्धोषधिवन्धनादिव विरसं विरहज्वरेण, चिन्ता
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था जिसप्रकार कामदेव के ध्यानानुशीलन का स्थान विस्तीर्ण होता है। जिसकी रोमराजिरूपी यष्टि उसप्रकार विस्तृत थी जिसप्रकार कामदेव की विजयपताका विस्तृत होती है। जिसका नाभिमण्डल उसप्रकार गम्भीर था जिसप्रकार कामदेव की जलकोड़ा की बावड़ी गम्भीर होती है। जो उसप्रकार त्रिवलियों-उदर रेखामों से अलकृत थी जिसप्रकार कामदेव का अवतार- गृह बलियों ( पुजाओं ) से अलङ्कृत होता है ।
जिसके शरीर का मध्यभाग ( कमर ) उसप्रकार मुष्टि ( संकुचित हाथ ) द्वारा नापा गया है, अर्थात् जो कृशकटि ( पतली कमर वाली ) है जिसप्रकार कामदेव का धनुष दंड मध्यभाग में मुष्टिमित होता है । जो कामदेव की शरासार-वृष्टि - ( बाण - समूह की वर्धा ) सरीखी परिपूर्ण ( परस्पर में सटे हुए पीत -स्थूल ) गोवरों (स्तनों) से अलङ्कृत थी । अर्थात् — जिसप्रकार पयोवर (मेघ) शरासार वृष्टि ( जल की वेगशाली वर्षा ) से महिल होते हैं। जो उसप्रकार बाहुरूपी लताओं को मानन्द दायिनी थी जिसप्रकार कामदेव को वनभूमि लताओं से आनन्ददायिनी होती है । जिसका सिर का मध्यभाग उसप्रकार केशपाशों के अक्षर- विन्यास से लिखित था जिसप्रकार कामदेव की शासन पत्रिका का मध्यभाग लिपि-लिखित होता है । भ्रकुटी रूपो लता के उल्लसन से अभ्युत्थान करती हुई-सी और विम्बफल सरीखे ओष्ठों के संचलन से स्वागत - प्रणयिनी ( प्रशस्त रूप से आई हूँ इसप्रकार अपने को कहती हुई- सरोखी ) जैसी सुशोभित हो रही थी। जो नीवी (स्त्री की कमर का वस्त्र बन्धन ) स्थान को ऊँचा उठाने से बैठने के लिए आसन-दान करती हुई सरीखी सुशोभित हो रही थी। जो कानों की खुजली को नष्ट करने के लिए ऊपर उठाए हुए हाथों के नखों की प्रभा-प्रवाह द्वारा पादप्रक्षालनोदक सम्बन्धी आधार में उद्यमशील सरीखी और सर्वाङ्गीण रोमाञ्च समूह द्वारा पूजा-पात्र को प्रदान करती हुई जैसी एवं केशपाशरूपी वल्लरी के कारण फैलाई हुई भुजा का मूलभाग ( कुचकलश ) के प्रदर्शन द्वारा मधुपर्क (दही मधु, घृत पाददान) को उत्पन्न करनेवाली-सी एवं जो शृङ्गाररूपी अमृत रस से उत्कृष्ट तरङ्गोंवाले नेत्रों के कटाक्षों के विलोकन द्वारा आचमन देनेवाली सरीखी सुशोभित हो रही थी एवं जिसने वासकसज्जिका —-शृङ्गारकारिणी को क्रिया की है ।" हे महापुण्यशाली मारिदत्त महाराज ! उसे देखकर मेरा हृदय जसप्रकार हर्षित हुआ जिसप्रकार दण्डकारण्य से निकलने पर हृदय हर्षित होता है और मेरे नेत्र उसप्रकार प्रसन्न हुए जिसप्रकार दिव्य अज्जन के लेप से नेत्र प्रसन्न होते हैं एवं मेरे शरीर को जसप्रकार शान्ति मिली जिसप्रकार अमृत वृष्टि के स्नान से शान्ति मिलती है। मेरा विरहज्वर उसप्रकार
१. तथा चोक्तम्— 'उचित वासके या तु रतिसंभोगलालसा । मण्डनं कुरुते हृष्टा सा वै वासकस [ज्जिका 11' - सं० टी० पृ० ३३ से संकलित - सम्पादक
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