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________________ साम आश्वासः ३७३ वान श्रीविरामावती बोहो' इति विचिस्योवतन वर्तयन्स्पाः स्ववासिन्याः कराबालिप्तशरीरेण शिलापुत्रकेण तो अरितावजीजनत् । एतच्च वैवेहिकम्पजनपरिजनात्प्रा चीनबहिनिमः शितिरमणीकरिणीभः रत्नप्रभः पुत्वा 'वासीपपत्रेण शिल्पिभिषि पापितेष्टकातक्षयः सुवर्णवं निर्णाय विहित सर्वस्वापहार सनिका मगरजनोन्चार्यमरणपुरपवावप्रवन्ध पिण्याकगन्धं निरवासपट् : 'मानल्या योगाए 'इति निवाज्यमनुस्मृत्य मूलधनप्रवानेताषयागत निवासनिषेरनेम परतण्यावानमि साधु समाश्वासयत्। स तथा निर्वासितः प्रजातनरकनिषेक' निबन्धः कृतप्रकामलोभसंबन्धविचरायोपाजितदुरन्सनुष्कर्मस्कषः पिण्याकगन्धः प्रेम पातालमगात् । भवति चात्र श्लोक:षष्ठपाः क्षितेस्तृतीयेsस्मिल्लल्सके दुःखमल्लके । पैते पिण्याकगन्धेन एनापावितचेतसा ॥१७८ इस्युपासकाध्ययने परिपहाग्रहफलफुल्लमो नाम द्वात्रिंशः कल्पः । सफल जन्मवाले एवं पुण्यवान पुत्र के कहने पर जब कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं जाना तब यदि ये मेरे दोनों पैर चलने में समर्थ न होते, तो मैं मेरे मनोरथ को बन्दीगृह ( जेलखाना) काकन्दी नगरी में किस प्रकार से जाता ? इसलिए ये दोनों पैर ही लक्ष्मी रोकनेवाले व पापी हैं। ऐसा मोनकर उसने उबटन पोसनेवाली अपनी पत्नी के हाथ से ग्रहण की हुई पीसने की सिल द्वारा अपने दोनों पैर तोड़ डाले। इन्द्र-सरीखे व पृथिवीरूपी स्त्री को प्रमुदिल करने के लिए हथिनी को हाथी-जैसे रत्नप्रभ राजा ने वणिक् वैषी गुप्तचर के मुख से उक्त घटना सुनकर टॉकी के अग्रभाग से शिल्पियों द्वारा उन ईंटों को कटवाया तो उसने उन्हें सोने की निश्चय की। तब उसने पिण्याकगन्ध का समस्त धन जब्त कर लिया और उसे नागरिकजनों द्वारा कथन किये गए, निन्द्य अपकोति के प्रबन्ध वाला करके बेइज्जतपूर्वक देश से निकाल दिया । राजालोग गणवान के लिए इन्द्र हैं और दूष्ट के लिए यमराज हैं।' इस नाति-वाक्य का स्मरण करके राजा रत्नप्रभ ने चोरी से पराङ्मुख हुए उसके सुदत्त पुष के लिए मूलधन के प्रदान द्वारा और वंश परम्परा से चले आनेवाले आवास की अनुमति द्वारा अच्छी तरह आश्वासन दिया। देश से निकाला जाकर पिण्याकगन्ध अत्यन्त लोभ का संबंध करने के कारण नरक-पतन का बंध करके और चिरकाल तक दारुण दुःखदायक पाप-समूह का संचय करके मरकर नरक गया। प्रस्तुत विषय के समर्थक श्लोक का अर्थ यह है४ घन के लिए भ्रान्त चित्तवाय पिण्याकगन्ध षष्ठम नरक के तीसरे लल्लक 'नामके पाथड़े में, जो कि भयानक और दुःख का पात्र है, गिरा ॥ १७८ ।। इस प्रकार उपासकाध्ययन में परिग्रह में आसक्ति का फल विस्तृत करनेवाला __ यह बत्तीसवाँ कल्प समाप्त हुआ। १. गृहीत । २. 'नौसाण' टि. स्व पेरणपापाणेन' इति पं। ३. 'दगिमा पाढमुखान्' टि. स्वक, 'वैदेहिक्रयानः वणिक्वैप: राजप्रणिधिः' इति यश. ०। ४. इन्द्रसमानः। ५. टोकी। ६.शारित । ७. तनकरणं । ८. धन। ९. निकारो चित्रकार: स्थान विरूपविधिनेत्ययः १०. निटितवान् । ११. आवासानुमतेन । १२. पतन। १३. भूत्वा । १४, पष्ठमनरकस्य तुलीये प्रस्तारे।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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