SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० यशस्तिलक चम्पूकाव्ये पवनमिवान्तस्तस्वसर्ग' निसर्गमलोमस मानसं बहि:प्रकाशनसरसं च । ममति चात्र श्लोकः-- जले तलमित्र तिचं वृषा सत्र बहिचति । रसवत्स्यान्न पपान्तर्योधो वे घाय घासुन्तु ।।१४.४।। इत्युपासकाध्ययने भवसेनधिलसमो नाम शमः कल्पः । परीक्षितस्ताबन सभाविभविष्यद्भबसेनो भवसेनस्तविवानी भगवमाशोविसावपोत्पादवसुमतों रेवती परीक्ष इत्याक्षिप्ताम्त:करणः परस्य"पुर परधिहिंसां शोतंसाबासर्वविकान्तरालकमलकणिकास्तीर्ण"मगाजिना'तीनपर्व पर्यायाम, समर सरः संजातसरोजसूप्रतितोपवीतयूतकायम् , अमृतकर कुरकुल "कृष्णसारकृति कृतोत्तरा''सङ्गासनिवेशम , अनबरतहोमारम्भसंभूतभसिलपाणुपुण्डकोरकटनिटस' वेशम् , मम्बरवरतरङ्गिणोज लक्षालितकल्प कुजवल्कलवलि. पदार्थों को माणित करनेवाली अनिमाले श्री मुनिलावायं ने इसे कुछ मी सन्देवा नहीं भेजा; क्योंकि इसका मन दीपक की बत्ती के अग्रभाग-सरोखा आत्मतत्व के निश्चय में स्वभाव से हो कलुपित है परन्तु वाह्य पदार्थों को प्रकाशित करने में प्रीति-युक्त है। इस विषय के समर्थक एक श्लोक का अथ यह है मानव का जल में तैल-मरीखा पाह्याचार में ही प्रकाशमान शास्त्रज्ञान व्यर्थ है: क्योंकि उसमें {परी शास्त्रज्ञान में ) मेदज्ञान के लिए अन्तर्बोध ( आत्मज्ञान ) नहीं होता। जैसे लोह-आदि धातुओं के भेद के लिए पारद में अन्तर्वोध-भीतरी प्रवेश होता है, जिससे लोहादि धातुएं सुवर्ण हो जाती हैं ॥ १८ ॥ इस प्रकार उपासकाध्ययन में भव्यसेन मुनि की आगम-विरुद्ध प्रवृत्ति को बतलानेवाला यह दशा कल्प समाप्त हुआ। तदनन्तर 'चन्द्रप्रभ' क्षुल्लक ने मन में विचार किया-कि 'मैंने ऐसे भव्यसन को परीक्षा कर लो, जो कि हठ से भविष्य में प्रकट होनेवाली संसाररूपी मैना से युक्त है, अब पूज्य मुनिगुप्ताचार्य के आशीर्वादरूपी वृक्ष की उत्पत्तिभूमि रेवती रानो की परीक्षा करता हूँ।' इस प्रकार आकृष्ट मनवाले उसने नगर { उत्तर मथुरा) की पूर्व दिशा में ऐसा कमलोत्पन्न ब्रह्मा का रूप ग्रहण करके समस्त नगर को खुब्ध ( क्षोभयुक्त) किया, जो कि [ वाहनरूप ] हंस की पीठ को मुकुटप्राय आवासदाली वेदिका के मध्य में कमल-कणिका पर बिछे हुए विस्तृत मृग-वर्म पर पर्यङ्कासन से बैठे हुए थे। जिनका शरीर मानसरोवर में उत्पन्न हुए कमलतन्तुओं से बने हुए यज्ञोपवीत से पवित्र था। जिनके उत्तरासन ( दुपट्टा ) की रचना, चन्द्र के लाञ्छन में वर्तमान मग के वेश में उत्पन्न हए मृग के धर्म से की गई थी। जिनका ललाटदेश ( मस्तक ) निरन्तर होने वाले होम के प्रारम्भ से उत्पन्न हुई भस्म के शुभ्र वृत्ताकार (गोल ) तिलक से उत्कट था। जिनका जटाजूट देव-गंगा के जल से प्रक्षालित किये हुए । धोये हुए ) कल्पवृक्ष के वक्कलों से बने हुए उपरितन वस्त्र-समूह से वेष्टित था । जिनके चारों हस्त देवगंगा के तट पर उत्पन्न हुए दर्भाकर, रुद्राक्षमाला, कमण्डलु व योगमुद्रा से अङ्कित-चिह्नित थे। १. सर्गे निश्चय । +. शास्त्र । २. वाह्याचार । ३. पारदवत् । ४ भदाय । ५. हठात् प्रकटीभविष्यन्ती संसार सेना यस्य सः । ६. व्याक्षिणचित्तः । ७. नगरस्य । ८. पूर्वदिगि । ९. अंशशब्देनाथ पृष्ठं तस्य पृष्ठस्य उत्तंस: मुकुटप्रायः योऽसौ आवासः । १०. विस्तृत । ११. मृगपर्म। १२. मानसरोबर । १३-२८. चन्द्रस्य लाम्छने यो भूगो वर्तते तस्य वंशोत्पन्नस्य मृगस्य चर्मणा कृष्णसार-मृग, कृति-चर्म उत्तरासनरचनम् । १९. वृत्ताकार-तिलकं । २०. ललाट । २१. देवगङ्गा । २२. कल्पवृक्ष ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy