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________________ पष्ठ आश्वासः २३९ 'अभिमानस्य रमा प्रतो 'शार्य श्रुतस्य च । वनन्ति मुनयो मौनमदनारिषु कर्मसु ॥१८॥ इति मौनफलमविकल्प्य मातजल्प: 'द्विजारमज, समन्धिप्य समानीयतामावा' यस्कायो गोमयो भसित. पटलमिष्टकाशकलं वा' । 'भगव, अखिललोकशीचीमितप्रवृत्तिकायां मत्तिकायों को दोषः। 'बटो, प्रवचनलोचमनिया यिकास्तकायिकाः किल तत्र सन्ति जीवाः' । 'भगवन, शानदर्शनोपयोगलक्षणो नोवगुणः' । न च सेषु तवय मुपलभ्यते' । 'यवमानीयला मृत्स्ना कृत्स्नाऽसुमाग्या' । अनुस्लमाषर्य कुणिकामयति । मुषामुनिजलविकलं कमण्डस फरेणाकलय्या 'बटो, रिक्तोऽयं कमण्डल'। भगवन, इदमुरकगिर ले तल्ले पारने'। 'दो, पातपानीगाटा महबार, म किमिति यतो जन्तवः सन्ति । 'भगवन, तदप्तस्यमिह स्वच्छतया बिहायसीय पसि तवनवलोकनादात' बहिस्तन्त्र संयमिनि सत्याभिनिवेशव "शिकाशयश्मनि तदेशमुहिमपाश्रितशीचे सवरेण चिन्तितम् । अतएव भगवानतीन्द्रियपदार्थप्रामानशेमुधों प्राप्तः । श्रीमुनिगुप्तोऽस्य किमपि न वाचिक प्राहिणोत् । पामावस्मिन्प्रवीपति भगवन् ! आप मौन से संकेत क्यों करते हैं ? यह सुनकर नग्नवेष से उदगोषण करने वाले मुनिषेषी ने कहा-'स्वाभिमान ( याचना न करना) की रक्षा के लिए वे शास्त्र की पूजा के लिए भोजनादि क्रियाओं ( भोजन, स्नान, सामायिक-आदि छह कर्म, शोच-आदि ) में मुनिगण मौन धारण करने को कहते हैं ।। १८३ ।।' मौन के इस फल का विचार किये बिना ही मुनिवेषी भव्यसेन बोल उटा–'बाह्मण-पुन ! कहीं से खोजकर सूग्या गोबर, राख-समूह, या इंट का टुकड़ा लाओ ।' वालक-'भगवन् ! समस्त लोक की शुद्धि के योग्य प्रवृत्तिवाली मिट्टी में क्या दोष है ?' 'बालक ! मिट्टी में निश्चय से शास्त्ररूपी नेत्रद्वारा देखे गए पुधिवोकायिक जीव रहते हैं।' 'भगवन् ! जीव का लक्षण तो ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग है परन्तु मिट्टी में ये दोनों उपयोग नहीं पाये जाते।' 'यदि ऐसा है तो समस्त प्राणियों द्वारा सेवन-योग्य मिट्टी लाओ।' बालक ने मिट्टी लाकर [ जल-शून्म ] कमण्डलु समर्पण कर दिया । हाथ से कमण्डलु को खाली जानकार मुनिबेपी ने कहा-'बालक! यह कमण्डलु तो खाली है ।' 'भगवन् ! जल तो सामने कोचह-रहित तालाब में है।' 'बालक ! वस्त्र से विना छाने हुए जल को ग्रहण करने में महान् पाप है, क्योंकि उसमें जीव होते हैं।' 'यह बात बिलकुल झूठ है। क्योंकि स्वच्छ होने से आकाश-सरीखे इस जल में जीव दिखाई नहीं देते। यह सुनकर उस बाह्य सम्प्रदाय के मुनि ने, जिसका अभिप्रायरूपी भवन तत्वज्ञान के अभिप्राय से शून्य है, उस तडाग पर जाकर शुद्धि निया कर ली तब विद्याधर ने विचार किया कि इसीलिए अतीन्द्रिय १. पूजाघ । २. दृष्ट्वा । ३. मावायचायः शुष्यच्छरीरः ( शुटका: ) ये 4 गोषणे इत्यस्थरूपं । ४. भस्मपोटरा । ५. निवायो दर्शनं स विद्यने येषामिति । प्रने धन इति वः यस्येकः तस्मैकादशः । दृष्टाः इत्यर्थः । ६. ज्ञानदर्शनोपयोगवयं । ७. अकर्दमें। 4. तहागे। ९. मादीनवं दोषः कर्मानपदोपः। १०. संप्रदायं । ११. अभिप्राय । १२. चशिक शून्यं । १३. सन्देश 1
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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