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________________ २३८ यवास्तिलक चम्पूकाव्ये स्वाध्यायध्यानसर्वस्व, समास्व' । 'परवा निमविवारण वाक्प्रकमाञ्से, भगवन्, साष समासें"। तबन्यसीसवतीषु कियतीचित्कालकालासु 'बचो, ललाटतपो वर्तते मार्तण्डः । सद्गृहाणेमं कमण्डलम् । पर्यदया गण्ट्राषः । गदः'यथानापयति भगवान्' । पुनर्नगरबाहिरिकायां नियंते च संपते स कपटवटमायामयशाकुरस्किरनिकोणी विहारावतोमवनिमफार्षीत् । तदर्शनादाकृतियतिरमि मनाग्थ्यलम्बिष्ट'। बटु:--'भगवन, किमित्यकाण्ड विलम्स्यते । 'घटी, प्रवचने' किलते शप्पा कुराः स्थावराः प्राणिनः पठचन्ते'। 'भगवन्, श्वासादिषु मध्मे कितियपुग:५० पल्वमीयां प्राणः । केवलं रलाइ फुरा इन घराविकारा होते शष्पा कुराः'। यषमुनि:--'साध्ययमभिदधाति' इति विधिनय विहत्य : निःशक निष्पाक्तिनी गहारो विरहित स्याहारः करेण किमायभिनयामेरमनेनोक्तः- 'भगवन, शिमिर्च मौनेनाभिानीपतेजिनरूपाजीव: 'आपका मन किस विषय के मध्ययन करने की इच्छा का स्थान है ?' 'मेरा मन वाचनिक दोषों को प्रक्षालन करने वाले अध्याय-युक्त व्याकरण के अध्ययन का 'यदि यह बात है तो हे स्वाध्याय व ध्यान के सर्वस्व बालक ! तुम मेरे पास ही ठहगे।' 'परवादियों का मद चूर-चूर करने वाली वचन पद्धतिरूपी खनयष्टि से सुशोमित है भगवन् ! आपके पास ही अच्छी तरह ठहरता है।' इसके बाद जब कितनी काल-कलाएँ" ( समय-विभाग ) व्यतीत हो चुकीं तब एक दिन भव्यसेन मुनि ने उससे कहा __'बालक ] सूर्य मस्तक को सन्तप्त करने वाला हो गया है, अर्थात्-मध्याह्न की बेला है, अतः इस कमण्डलु को ग्रहण कर चलो पर्यटन करके वापिस आ जाय ।' 'भगवान् जैसी आज्ञा देते हैं।' मुनिवेषी भव्यसन के नगर के वाह्यप्रदेश में जाने पर उस कपटवेषी बालक ने बिहार भूमि को वालतुणों के अङ्करामह से व्याप्त (आच्छादित ) कर दिया। उसे देखकर मुनिवेषी भी कुछ समय तक विलम्ब करके ठहर गया। बालक-'भगवन् ! असमय में बिलम्ब क्यों करते हो?' भन्यसेन-'बालक ! आगम में ये घास के अङ्कर निश्चय से स्थावर जीव (एकेन्द्रिय ) कहे जाते हैं ।' बालमा-'भगवन् ! श्वास-आदि दश प्राणों में से इनमें निश्चय से कितने प्राण होते हैं ? पास के ये अङ्कर तो केवल रत्नाकरों-सरीखे पार्थिब हैं।' मनिवेषी—'यह बालक सत्य कहता है ऐसा विचार कर उस मुनिवेषी ने निःश होकर उस वालतणों से व्याप्त पृथिवी पर विहार करने शोच ( मलोत्सर्ग) से निवृत्त होकर मोन धारण करके हाथ से कुछ संकेत किया तो बालक ने कहा१ तिष्ठ। २ मिय्यावादि। ३. वापक्रम एव असिः स्वगो यस्यासो सस्य मंबोधनम् । ४ तिष्ठामि । ५. पर्यटनं कृत्वा। ६. वेषधारिणि । ७. वालतृण । ८. सिद्धान्ते । ९. दनाप्राणेषु मध्ये । १०. कतितमः । ११. पुरोष । १२. मोनी। १३. संशो कुर्वन् । १४. संझा क्रियते ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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