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________________ षष्ट आश्वास: २३७ मलं पिकल्पेन । तत्र पतस्य भविष्यति समस्ताप्याहतेतरशारीरिसप'मा समीक्षा स्थितिः' । 'बचरविधाबीजप्ररोहमल्लक अल्लको यथाविशति विव्यज्ञानसनवान्भगवान्' इति निगीर्य गगनपर्ययावतोयं प्रोत्तरमथुरायां परीक्षेयं सावदेकाह. बाइगनिधानं भपसेमम् । तरनु परीक्षिण्ये सम्पपत्यरत्नवम्ती रेवतीमिति कृतकोतुक; कलमणिशकिशा प्रकाशकेशपेशलासरस्लनलमुत्तप्तकाशनाचिचिरशरीरगौरतानुकूलमरविन्दमफरन्दपरागपिङ्गलमयनमतिस्परवि पटवणवर्णनोगौणभानमेकाशवर्षवेशीयमतिविस्मपनीयं कपटबटवेषमाविलय सन्मुनिमतमुदसितप' यासीत् । वेषमु"निस्तमीक्षणकमनीयं विजात्मजसज्जातोयं विलोक्य किल स्नेहाधिक्यमालीलपत्-'हहो, निखिलानजवंशव्यतिरिक्तसुकसकृतफल्याणप्रकृतितया समस्तलोकलोचनानन्धोत्पादनपटो, पटो, कुत्तः खलु समागतोऽसि' । 'अभिनवजामनोल्लाइनवच नागदप्रयोगचरफभट्टारक, सकलकलाविलासापासविद्वजनपवित्रापाटलिपुत्रात १२ । 'किमर्मम्' । 'अध्ययनार्थम्' । 'क्याधि"जिगांसाधिकरणमन्तःकरणम्'। 'वाइमलक्षालनकरप्रकरणे व्याकरणे'। 'यचंच मदन्तिके श्यकता नहीं है, क्योंकि वहां पर पहुंचे इस जागो जान ६ नेतरलोक-सरीस्त्री स्थिति प्रत्यक्ष हो जायगी। विद्याधरों की विद्यारूपी बीजाङ्करों के पात्ररूप ( धारक ) क्षुल्लक ने कहा-'अतीन्द्रिय ज्ञान के सङ्गम वाले भगवान् जैसी आज्ञा देते हैं, उसे प्रमाण मानता हूँ।' इतना कहकर वह आकाण-मार्ग की चर्या ( गमन ) से उत्तर मथुरा में जा पहुँचा । वहां उसने कोतहल किया कि 'मुझे सबसे पहिलं ग्यारह अङ्ग के निधि भव्यसेन मुनि की परीक्षा करनी चाहिए तत्पश्चात् सम्यग्दर्शनरूपी रन से विभूषित रेवती रानी को परीक्षा करूंगा'। ऐसा विचार करके उसने विद्या की सामथ्यं से ऐसा बनावटी बालक-वेष धारण किया, जो (बालकवेष ) ग्यारह वर्ष के कुमार-सरीखा था। जिसका घना मस्तक घान्य-मञ्जरो के अग्रभाग-मारीखे पोले प्रकाशमान केशों से मनोहर था। जिसका गौर वर्णवाला शरीर तपे हुए सुवर्ण की कान्ति-सरीखा सुन्दर था। जिसके नेत्र, कमल के मकरन्द और पराग-जैसे पीले थे। जिसका मुख अत्यन्त स्पष्ट व महान् शब्दों के उच्चारण करने से खुला हुआ था और जो अत्यन्त आश्चर्यजनक था। पुनः वह भव्यसेन मुनि के आश्रम में गया। मुनिवेपी ( द्रव्यलिङ्गी ) भव्यसेन ने नेत्र-प्रिय व ब्राह्मण-पुत्र-जैसे उसे देखकर निस्सन्देह विशेष स्नेहपूर्वक कहा---'समस्त ब्राह्मण-वंश के विशेष पुण्य से रची हुई कल्याणकारिणी प्रकृति के कारण समस्त लोक के नेत्रों को आनन्द उत्पन्न करने में चतुर हे कुमार! तुम कहाँ से आये हो ? बालक-वेषी क्षुल्लक-'नवीन मानव के मन को सुख देने वाली वचनरूपी औषधि के प्रयोग करने में चरक वैद्य-सरीखे हे भगवन् ! मैं समस्त कलाओं के विलास को स्थानीभूत विद्वानों से पवित्र हुए पाटलिपुत्र (पटना ) नगर से आया हूँ।' "किस प्रयोजन से आये हो?' 'पढ़ने के लिए' १. समाना। २. प्रत्यक्षा । ३. मल्लकं भाजनं पारकः । ४. अहं परीक्षेमं । ५. किंयामः सालकं अपविभागमित्यर्थः । ६. अवकीर्णाः । ७. महान्तः । ८. गृहीत्वा। २. स्थानं । १०. भव्यसेनः । ११. वचनमबोषवं तस्य प्रयोगे परकर्वद्यः । १२. आगतोऽस्म्यहं । १३, अध्ययन कर्तुमिच्छा । १४. अध्याये ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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