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________________ २३६ यशस्तिलक चम्पूकाव्ये 'धारचातुरो चमत्कृत वित्ताचरेश्वरविरचितचरणाचंनोपचारं श्रीमुनिगुप्तमानस्याहारं भवन्तं गव गगनगमा- ' नापाङ्गामृतसारणी संबन्धवधस्य विजयार्धमेदिनीप्रस्य रतिकेलिविलासविगलितनिलिम्पललनामेखलामणौ दक्षिणश्रेणी कूटपतनाषिपत्योपान्तः सुमतिसोमम्ति नोभागतः संसारसुख परामुखप्रतिमश्चन्द्र प्रभश्चन्द्रशेखराय सुताय मिजेश्वर्य वितीयं पश्वसित देशपतिरूपः सफलाम्बर र विद्यापरिहृमौपः सप्रश्रयमभिवन्द्यानवद्यविद्यामहून् भगवन्, पौराङ्गनाशृङ्गारोत्तरङ्गापाङ्गपुनयकम्मरशरायामुतरमथुरायां जिनेन्द्र मन्दिर वन्दारुहृदयको ह्दवर्ती चतेऽहम् । मतस्तनगरीगमनाय तत्रभवता भगवतानुज्ञातव्योऽस्मि । कि च कस्प तस्यां पुरि कर्यातिथ्यम्' इत्यपृच्छत् मुनिसत्तम:'प्रियतम, यथा ते मनोरमस्तचाभि मलपयः समस्तु | संवेष्टव्यं पुनस्ततावत्रेव यबुत तत्पुरोपुरंदरस्य वरणचरणोश्वरस्य शवसदृशः सुदृशः पति"-जिन पतिचित्तचरणोपचारषवच्या महादेव्या रेवसतिगृहीतनामाया मदीयाशीर्वाच्या तथावश्य रुविशेवयविस्य सुव्रतभगवतो वन्दना च । देशयतिवरः किमपरस्तत्र भगवन्, जैनो जनो नाहित' । भगवान् - 'वेशश्रतिन्, विशिष्ट बुद्धि के आधार थे । समस्त श्रेष्ठ मुनिसंघ जिनके चरण कमणों की उपासना करता था और जिनके चरणकमलों की पूजा का उपचार, ऐसे विद्यावर राजाओं द्वारा रचा गया था, जो कि इनकी विशेष त्राश्चर्यजनक तपश्चर्या संबंधी चरित्र - पालन की चतुरता से आश्चर्य युक्त चित्तवाले थे । उनसे ऐसे 'चन्द्रप्रभ' नाम के क्षुल्लक ने सविनय नमस्कार कर पूंछा, जो कि विद्यावरों की कमनीय कामिनियों के कटाक्षरूपी अमृत-नदी के संबंध से विशद - शुभ्र हुए 'विजयारों' पर्वत को रतिक्रीड़ा के विलास से देवियों को करवोनी के मणियों को शिथिलित करनेवाली दक्षिण श्रेणी में स्थित हुए 'मेघकूट' नामक नगर के स्वामित्व के समीप था, अर्थात् राजा था। सुमति नामकी उसकी रानी यो मोग की बुक से मिनु य वन्य जिसने अपने 'चन्द्रशेखर' नाम के राजपुत्र के लिए अपना राज्य देकर उक्त आचार्य के समीप क्षुल्लक की दीक्षा ग्रहण की थो और जिसके समीप विद्याषरों की आकाशगामिनी आदि समस्त विद्याओं की स्वीकृति श्री । 'निर्दोष विद्या से श्रेष्ठ भगवन् ! मेरा मनोरथ नागरिक कमनीय कामिनियों के शृङ्गार से तरङ्गोंसरीखे बड़े हुए कटाक्षों द्वारा दुगुने हुए काम वागवाली उत्तरमथुरा के अनेक जिन-मन्दिरों की बन्दनाशोल हृदय वाला है, अतः उस नगरी की जाने के लिए पूज्य भगवान् की अनुमति प्राप्त करना चाहता हूँ एवं उस नगरी में किसके प्रति क्या सन्देश कहना है ? उसे भी वतला दें।' आचार्य - 'प्रियवर | आपका मनोरथ ( अभिलाषा ) इष्ट मार्ग याला हो और वहां के लिए मेरा इतना हो संदेश है, कि उस नगर के इन्द्र सरीखे वरुण राजा की इन्द्राणी सरीखी मनोज्ञ व सम्यग्दृष्टि तथा पति (राजा) के चिन की व तीर्थंकर भगवान् के चरणकमलों की पूजा की मार्गभूत महादेवी रेवती नाम की रानी के लिए मेरा आशीर्वाद कहना तथा अपने आवश्यक ( सामायिक आदि ) विशेषों को अधीन बुद्धिवाले भगवान् (पूज्य ) 'सुव्रत' नाम के साधु के लिए मेरी वन्दना कहना' | क्षुल्लक ने पूछा- 'भगवन् ! क्या वहाँ अन्य जैनसाधु नहीं है ? आचार्य - 'देशव्रती ! आपको इतने विचार करने से ही पर्याप्त है, अर्थात् — विशेष पूछने को आव १. विद्याधर- स्त्री । २. विशदः । ३. देवाः । * गृहीत ४ गनोरथः । ५. पतिश्च राजा, जिनपतिः वीतराग परमस्वामी, तयोतिचरणी, अर्थात् पत्युवित्त जिनपतेश्चरणौ उपचार (पूजा) मार्गायाः । पदवी स्थानं मार्गो वा । ६. मावश्यके तियमता । ७. बुद्धेरात्मनो वा ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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