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________________ षष्ट आश्वास तोतरी 'यप्रतानपरिवेष्टितजदावलयम्, अमृताधःसिन्धुरोपःसंजालकु सपाङ्कराक्षमालाकमण्डलयोग मुद्राङ्कितकरचतुष्टयम्, उपासनसमायात-मतङ्ग-भृगु-भर्गभरस-गौलम-गर्ग-पिङ्गल-पुलह-पुलोम-पुलस्ति-पराशर-मरोधि-विरोमन“पञ्चरोकानीकास्वाद्यमानश्वनारविन्दकन्दरविनिर्गलनिखिलवेदमकरन्दसंबोहम्, उभयपाश्वविस्थितमूलि मानसिलकलाविलासिनीसमाजसंचार्यमाणचामर प्रधाहम, उदारनाबदारदमुनिना मन्यमानप्रतीहारव्यवहारम्, अम्भोभवों"बाकारमासाद्य स विद्याधरः समस्तमपि नगरं शोभयामास । सापि बिनेश्वरचरणप्रणयमण्डपमानमा यो पक्षणपरणीश्वरमहादेबी नपतिपुरोहिताप्तमुइन्तमाकर्ण्य त्रिषष्टिालाकोन्मेषेषु पुरुषेषु मध्ये ब्रह्मा नाम न कोऽपि भूयते । सथा मात्मनि मोमें गाने वृत्ते ताते च भरतराजस्य । ब्रह्मेति गो: प्रगीता म पापरो विद्यते ब्रह्मा ।।१८५॥' इति धानुस्मृत्याऽविस्मयतिरतिष्ठत् । पुन: कीनाश' विशि पवनाशनेश्वर शरीरशयनाश्रितापचन मितस्ततः प्रकामप्रसरत्तरलो तरङ्गकान्तिप्रकाशपरिकल्पितामृताम्बुधिनिषानम, उलेक्षोल्लसलूरुणामगिमरीचिनियसिचायाचरितनिरालम्बाम्बरखिप्तान जिनको ऐमी मुखकमलरूपी गुफा में समस्त वेदरूपी पुष्प-रस-समूह शर रहा है, जो कि सेवा के लिए आये हुए मतङ्ग, भृगु. भर्ग, भरत, गौतम, गर्ग, पिङ्गल, पुलह, पुलोम, पुलस्ति, पराशर, मरीचि व विरोचन इन ऋषि रूपी भ्रमर-समूह मे आस्वादन किया जा रहा था और जिन्हें दोनों पाश्र्वभागों पर खड़ी हुई मूर्तिमान समस्त कला-सरोखी देवियों के समूह द्वारा चमर-वेणी ढोरी जा रही थी। जिनके द्वारपाल का कार्य महान् शब्द करनेवाले नारद मुनि द्वारा स्वीकार किया जा रहा है । परन्तु जब वरण राजा को पट्टरानी रेवती रानी ने, जो कि तीर्थंकर भगवान् के चरणकमलों को भक्तिरूपी मण्डप वो सुशोभित करने के लिए माधवीलता-सरीखी है, राजपुरोहित से उक्त वृत्तान्त सुना तो उसने विचार किया-कि 'तिरेसठ शलाका में उत्पन्न हुए पुरुषों में तो किसी का भी नाम ब्रह्मा नहीं है।' शास्त्र में उल्लेख है-आत्मा, मोक्ष, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं भरत चक्रवर्ती के पिता (श्री ऋषभ देव तीर्थकर ) ये पांच तत्त्व आगम में 'ब्रह्मा' इस शब्द से कहे गए हैं, इनके सिवा दूसरा कोई व्यक्ति ब्रह्मा नहीं है ।। १८५ ॥ ऐसा निश्चय करके वह आश्चर्य न करने वालो बुद्धि-युक्त होकर अपने स्थान पर ही स्थित रही अर्थात्-वह उक्त बनावटो ब्रह्मा के दर्शन के लिए नहीं गई। इसके पश्चात् उस विद्याधर ने नमर की दक्षिण दिशा में ऐसा विष्णु का रूप धारण करके समस्त नगर को क्षुब्ध किया। जिसका शारीर शेषनाग शम्या पर आश्रित था । यहाँ-वहाँ विशेष रूप से फैली हुई शेषनाग के शरीर की लहर वालो कान्ति के प्रकाश से जिसके द्वारा तीरसागर की निकटता रची गई थी । जिसने घर्षण से शोभायमान शेषनाग के फपा के मणियों को किरण-श्रेणीरूपो वस्त्र द्वारा आलम्बन-शून्य आकाश में १. उपरितनवस्त्र । २. अमृतभोजो देवास्तेषां गंगा। ३. दर्भाः । ४. हृदये न्यस्त हुस्न ध्यानमुदा । ५. एते ऋषय एव मृङ्गाः । १. मूर्तिगत्यः कला इव देवस्त्रीसमूहः । ७. कमलोपन्नस्म ब्रह्मणो रूपं प्राप्य । ८. बसन्तलता । ९, ऋथिता । १०. स्थिता । ११. दक्षिणदिक् यमस्म । १२. शेषनागशय्या । १३. शसेरं । १४. दोषनागदारीर । १५, घर्षण । १६. वस्त्र ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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