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________________ ૨૪૨ यशस्तिलकचम्पूकाव्यं 4 भारम् अमानमञ्जरीजालजटिल प्रसाभवन मालाम करण्यमण्डित कौस्तुभप्रभाप्रभावम्, असित सिहरन - कुण्ड को छोत संपादितोभयपक्ष पक्षपाक्षेपम् नेपिकिटितकिरीटको टिबिन्मस्तास्तोकस्तकपारिजात प्रसवपरिमलपान परिचय चटुल' बञ्चरोफयरभ्यमानापरेन्दीवरशेखरफलापम्, अतिगम्भीरनाभिन' दनिर्गतो निलयनिलीन हिरण्यगर्भसंभाष्य माणनामसहस्र कलमा खण्डलजलविता "संकामा नत्र म कमलममाचरण "शङ्खसारङ्ग "नन्द-१५ hintiकरम् असुरन्यव"'बोकुलसुन्दरीसंपाद्यमानचामरोप द्यारव्यतिकरम्, अरुणा 'नुजविनीयमानसेवागतसुरसमाऊम्, अषोस' 'जवेषं विशिष्ध विद्याधरः समस्तमपि नगरं कोभयामास । सापि जिनसमयरहस्यावसायसरस्वती रेवती कर्णपरम्परया जिदन्तीमेतामुपश्रुत्य 'सम्ति खल्वर्धचक्रवर्तिनो नघ कोमोव की मघः । ते तु संप्रति न विद्यते । अयं पुनरपर एव कश्चिदिद्रजालिको लोकविप्रलम्भनायावतीर्णः' इति निर्णीयाविचलितविला समासीत् । 3. पुनः पाश भूद्दिशि शिशिरगिरिशिखराकारका पशा बनराश्रितशरीराभोगमन्वय" ग्भूतनग तदनानिषि २ रोश चंदेवा विस्तारित किया था। जिसके हृदय पर स्थित हुए कौस्तुभ मणि की कान्ति का प्रभाव, नन्दनवन के पुष्प व मञ्जरी समूह से व्याप्त व फैली हुई वन श्रेणरूपी [ देवियों को श्रेणी ] के मकरन्द ( पुष्परस ) से अलङ्कृत था। जिसके द्वारा नील व शुभ्र रत्न-कुण्डलों के प्रकाश से सुशोभित दोनों पार्श्व भागों पर कृष्ण व शुक्ल पक्ष का आक्षेप ( आकर्षण ) रचा गया था। अनेक प्रकार के माणिक्य-समूह से बने हुए मुकुट के अग्रभाग पर स्थापित किये हुए प्रचुर गुच्छोंवाले कल्पवृक्ष के पुष्पों को सुगन्ध को पीने के परिचय से चञ्चल अमर-समूह द्वारा ऐसा मालूम पड़ता था मानों - जिसका दूसरा नीलकमलों का शिरोभूषण समूह बनाया जा रहा है। जिसके बहुत गहरे नाभिरूपी तालाब से निकले हुए ऊँची नालवाले कमलखमी गृह पर बैठे हुए ब्रह्मा द्वारा जिसके सहस्रनाम का मधुर पाठ किया जा रहा था। जिसके चरणकमल क्षीरसागर को पुत्रो ( लक्ष्मी ) द्वारा दाबे जा रहे हैं। जिसका करकमल चक्र, शङ्ख, धनुष व खड्ग से संकीर्ण (मिश्रित या अलङ्कृत ) था । जिसके सिर पर दैत्य-समूह की पूर्व में कारागार ( जेलखाने ) में रक्खो हुई सुन्दरियों द्वारा चमर ढोरे जा रहे है और जिसकी सेवा के लिए आया हुआ दैत्य-समूह गड द्वारपाल से स्वागत किया जा रहा है, परन्तु जब जैन सिद्धान्त के रहस्य को जानने के लिए सरस्वती सरीखी रेवती रानी ने कर्ण परम्परा से यह किंवदन्ती सुनी तब उसने विचार किया- 'आगम में गदास्वामी अचकी निश्चय से नो ही हैं, जो कि इस समय बिद्यमान नहीं हैं, अतः यह कोई दूसरा इन्द्रजालिया लोक को धोखा देने के लिए अवतीर्ण हुआ हैउत्पन्न हुआ है। ऐसा निश्चय करके उसका चित्त नहीं डिगा और अपने यहां बैठी रही, अर्थात्-वह उसके दर्शन के लिए नहीं गई । इसके पश्चात् उसने पश्चिम दिशा में ऐसा रुद्र का रूप धारण करके समस्त नगर को क्षुच्छ किया, जिसका विशाल शरीर हिमालय पर्वत की शिखर- सरीखे शरीवाले वृषभ पर स्थित था। जिसकी पीठ का ३. मणि । ४. पा १. देवाः । २. नारिका, जालंधरदैत्यवलनं च । । ५. कृष्णदाकलप ताभ्यामाक्षेपी यस्य स्रः । ६. चपल । ७ भ्रमराः । ८. नीलोत्पल । ९ । १०. कमल । ११. मीरसमुद्रः । १२ तत्सुता t: 1 १३. चक्रं । १४. धनुः । १५. खड्गः | १६. देवानां स्त्रियः कारागारे घृताः देयमरणानन्तरं ताभिः चामराः क्षिष्यन्ते । १७-१८. गरुडः द्वारपाली जातोऽस्ति तत्र आगतः स्वापत्र क्रियमाण । प्राप्य स विद्याधरः समस्तमपि नगरं श्रोभयामास । पश्चिमायो । २४. वृषभः । २५. पश्चात । १९-२० विष्णोः रूपं २३. वरुणविशि २१. परिजाने । २२, गवास्वामिनः । २६. गौरी | २७. निविष्ट ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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