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________________ सप्तम आश्वास: उपकाराय सर्वस्य पर्जन्य' इव धार्मिकः । तत्स्थानास्थानचिन्तेमं अष्टिबन्न हितोक्तिधु' ।। ४३ ॥ इत्यवगम्य सम्यगवत्रियोषोपयोगाइ धगतंतवासन परासुतायोगस्तन्मातङ्गमेवमबोचत्-'महो मातङ्ग, लघुभयान्तरातसज्जा रज्जू "सृजतस्तरमध्ये सत्र 'सभिवृत्तिनतम्' इति । मातङ्गस्तथा प्रतिपयोपसन" च तमचका पिशित प्राश्य' 'माधवमिदं स्थानकं नायामि तावन्मेऽस्य निवृत्तिः' इथभिवाय समासावितमदिरास्थानः प्रतिपन्न मानस्त वुप्रतरगरभराल्लघू'लचितमतिप्रसरस्त निवृत्तिमलभमानचित्तोऽपि प्रेत्य'' तावामात्रयतमाहात्म्येन या कुले यक्षमुम्यत्वं प्रतिपदे । भवति चात्र लोक: घण्डोऽवन्तिषु मातङ्गः पिशितस्प निवृत्तितः । अस्पल्पकालभाविन्या: १३ प्रपेदे यसमुत्पताम् ।। ४४ ॥ इटमुपासकाध्यपने मांसनिवृत्तिकलाख्यानो माम पञ्चविशतितमः कल्पः । धार्मिक महापुरुष समस्त लोक का उपकार करने के लिए मेष-सरीखे होते हैं। अर्थात्--जैसे मेघ सब का उपकार करने के लिए हैं वैसे ही धार्मिक महापुरुष सब का उपकार करने के लिये है और जैसे स्थान और अस्थान का विचार किये बिना मेघ सर्वत्र घरसता है, वेसे हो धार्मिक पुरुप कल्याणकारक धर्मोपदेश में स्थान और अस्थान का विचार नहीं करते । अर्थात्--उन्हें यह उत्तम है और यह नीच है, इस प्रकार की चिन्ता । विचार ) नहीं होती। अभिप्राय यह है, कि वे समस्त सर्व साधारण प्राणियों के प्रति धर्म का निरूपण करते हैं॥ ४३ ॥ ऐसा निश्चय करके भगवान 'अभिनन्दन' मुनि ने अवधिज्ञान के उपयोग से इस चाण्डाल की निकट मृत्यु जान ली । उन्होंने उससे मामा--'अही पाल ! नास बस से भरे हुए पड़ों के मध्यदेश में बंधी हुई चर्म-रज्जु को बांटनेवाले तुम्हारे लिए जिस वस्तु ( मांस-आदि ) के पास जाकर उसे एक बार भक्षण करली, उसको समीपता छोड़कर दूसरी बार जब तक नहीं पहुंचते हो, अर्थात्-जब तक रस्सी बट रहे हो, उसने समय तक तुम्हें उसका त्याग है। चाण्डाल उक्त नियम लेकर उस स्थान पर पहुंचा। उसने मांस भक्षण करने नियम किया कि जब तक मैं इस स्थान पर न आऊँ तब तक के लिए मुझे इसका त्याग है।' इसके बाद वह मुरा से भरे हुए घड़े के पास पहुंचा और उसने सुरा पो ली। पीते ही जहरीले सांप के तीनतर जहर के प्रभाव से उसको बुद्धि का प्रसार शीन नष्ट हो गया । यद्यपि वह मुरा का त्याग न कर सका तथापि मरसार केवल उतने मात्र नत के माहात्म्य से बह यक्ष जाति के देव-समूह में प्रधान यक्ष हुआ। प्रस्तुत विषय के समर्थक श्लोक का अर्थ यह है-- अवन्ति देश में 'चण्ड' नाम का चाण्डाल बहुत थोड़े समय में होनेवाली मांस की निवृत्ति (त्याग ) से मरकर पक्ष देवों में प्रधान हुआ। ४४ ॥ इस प्रकार उपासकाध्ययन में मांस-रयाग का फल निरूपण करनेवाला पच्चीसवां कल्प समाप्त हुआ। १. मेघः। २. एष उत्तमः एष नोचः धर्मकथने इति चिन्ता न, सर्वेषां धर्मो बाच्यः । ३. जात। *. मरणं । ४. मांसमद्यमध्यबा। ५. कुर्वतः । ६. मस्मिन् पावें पलूक्तं तत्समीपं सक्त्वा वित्तीयवारं याचमायाति तायत्कालपर्यन्तं तद्वतं । ७. गत्वा । ८. स्थानं । ९. मुक्त्वा । *. 'तनतरगराल्लघू इति १० । १०. शीघ्र । ११. मद्यनियम। १२. मृत्वा । १३ सेवन-शीलायाः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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