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________________ ३०६ यास्तिलकचम्पूकाव्ये अथ के ते उत्सरगुणाःअणुनतानि पञ्चव त्रिप्रकारं गुणवतम् । शिक्षाप्रतानि परवारि गुणाः स्युदिशोत्तरे ॥ ४५ ॥ : तत्रहिसास्तेयान्ताबह्मपरिग्रहविनिप्रहाः । एतानि देशतः एश्वाणवतानि प्रचक्षते ।। ४६ ।।। संकल्पपूर्वक: सेध्ये नियमो बसमुच्यते । 'प्रवृत्तिविनिवृत्ती वा सवसत्कर्मसंभवे ।। ४७ ।। हिसायामनते घौर्यामब्रह्मणि परिग्रहे । वृष्टा विपतिरत्रव परत्रैव च धुर्गतिः ॥ ४८॥ परस्यात्प्रमावयोगेन प्राणिषु प्राणहापनम् । सा हिंसा रक्षणं तेषामहिसा तु सता मला || ४९ ।। विकयाक्षकषायाणां निसायाः प्रणयल्प प । अन्यासाभिरतो सन्तुः प्रमत्तः परिकोसितः ।। ५० ।। देवतातिथिपिनर्थ मन्त्रोधमयाय' वा । न स्यात्याणिनः साहिता नाम तव्वतम् ।। ५१ ।। गृहकार्याणि सर्वाणि दृष्टिपूतानि कारयेत् । नवव्रध्याणि सर्वाणि पटपूतानि योजयेत् ॥ ५२ ।। प्रासन शायनं मार्गमनमन्यच्च वस्तु यत् । अवष्टं तन सेवेत अपाकालं भजनपि ।। ५३ ॥ __. श्रावकों के उत्तर गुण[अब श्रावकों के उत्तरगुण बतलाते हैं पाँच अणुव्रत, तीन गुणप्रत और चार शिक्षानत ये बारह उत्तरगुण हैं ।। ४५ ।। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों के एकदेश त्याग करने को पांच अणुव्रत कहते हैं ॥ ४६॥" बत का लक्षणसेवनीय वस्तु का संकल्पपूर्वक त्याग करना व्रत है अथवा प्रशस्त कार्यों ( दान, पूजा व व्रतादि ) में प्रवृत्ति करना और अप्रशस्त ( निन्द्य ) कार्यो ( मिथ्यात्व-आदि ) के त्याग करने को ब्रत कहते हैं ।। ४७ ।। पांच पापों का कटुक फलहिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह इन पाप क्रियाओं में प्रवृत्ति करने से इस लोक में भयानक दुःख और परलोक में दुर्गति के दुःख भोगने पड़ते हैं ।। ४८ ।। . अहिंसा का लक्षण-प्रमाद के योग से प्राणियों के प्राणों का घात करने को सज्जनों ने हिंसा मानी है और उनकी रक्षा करना अहिंसा मानी है ।। ४९ ॥ प्रमस का लक्षण-जो जीव, चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय एक निद्रा और एफ मोह, इन पन्द्रह प्रकार के प्रमादों के अभ्यास में अनुराग करने वाले प्राणियों को प्रमत्त कहा गया है ।। ५७ ॥ जो मानक देवताओं की पूजा के लिए, अतिथिसत्कार के लिए, पितरों के लिए, मन्त्रों को सिद्धि के लिए, औपवि के लिए अथवा भय-निमित्त सब प्राणियों की हिंसा नहीं करता, उसका वह अहिंसा मत . है ।। ५१ ॥ पानी वगैरह को छानकर उपयोग करना-- समी गृहमायं देखभाल कर कराने चाहिए और समस्त तरल पदार्थ (घी, दूध, तेल व जलादि ) वस्त्र से छानकार उपयोग में लाने चाहिए ॥५२॥ आसन, शय्या, मार्ग, अन्न, और जो कुछ भी दूसरे पदार्थ है उन्हें पथासमय सेवन करता हुआ भी बिना देखे शोधे सेवन न करे ॥ ५३॥ १. दानपूजावतादौ । २. मिध्यात्वाविरत्पादौ । ३. त्याग । ४. भयनिमित्तं च ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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