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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
सूत्रमत्स्यः फिलमस्तु स्वयंभूरमणोदधौ । महामत्स्यस्य कर्णस्थः 'स्मृतिदोषावधी गतः । ४२ ।। इयुपासकाध्ययने मांसाभिलाषमात्र फलप्रलपनो नाम चतुविशतितमः कल्पः ।
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श्रूयतामत्र मांनिवृतिफलस्योपाहपानम् – अवन्त्रिमण्याल नलिनाभिनिवास सरस्यामेकानस्यां' पुरि पुरबाहिरिकापां वेव्रिलामहिलाविलासविशिख 'वृत्तिकोषणस्य चण्डताम्नो मातरूपकस्यां दिशि निवेशितविशितोपदेशस्था * परस्यां दिविधिस्तसुसंभूतस्य तो एसीपी तदुभयन्तराले चर्मनिर्माणतन्त्र र वर्तयतो विपद्विशारोडी माण्डलडिम् तुण्डाय विनिष्यविविधधरविदोषाणासरा सुरासीत् । मन्त्रेणावसरे तत्समीपवत्सं गोवरे " धर्मश्रवणजन्मान्तराविप्रकाशनपथाभिः कथाभियिने यजनोपकाराय कृतकामचारप्रचारमग्न रान्मूति मत्स्वर्गापचगं मायमलमिवावतरच्चारणषयुगत्तमवलोक्य संजात कुतूहलम् देशमनुगस्य नगरे " तद्दर्शनेन भाषकलोकं व्रतानि समाजज्ञानमनुस्मृत्य समाचरितप्रणामः सुनन्दना सरगमनमभिनन्दनं भगवन्तमात्मोचितं व्रतममाचत । भगवानपि -
निस्सन्देह 'स्वयंभू रमण' समुद्र में महामत्स्य के कर्ण में स्थित हुआ तन्दुलमत्स्य अशुभ चिन्तन के दोष से ( बुरे संकल्प से ) नरक में गया ।। ४२ ।
इस प्रकार उपसिकाध्ययन में मांस की इच्छा मात्र करने का फल बतलानेवाला चौबीसवां कल्प समाप्त हुआ ।
अथ माँस-त्याग के फल के विषय में एक कथा कहते हैं, उसे सुनिए— १२. मांसत्यागी चाण्डाल की कथा
अवन्तिदेश में उत्पन्न हुए मानवरूपी कमलों के निवास के लिए तड़ाग सरीखी उज्जयिनी नगरी में नगर के बाहर निवास करने वाला और देविला नाम की पत्नी के साथ रतिविलासरूप वाणवृत्ति के लिए धनुष- जेसा 'चण्ड' नाम का चाण्डाल रहता था। जिसने बीच-बीच में खाने के लिए अपने गृह की एक दिशा में मांस रूप शाक स्थापित की थी और मध्य में पीने के लिए दूसरी दिशा में सुग से भरा हुआ घट स्थापित किया था । एवं जो उन दोनों दिशाओं के मध्य में बैठकर मांस रूप शाक से प्रचुर सुरापान करता जाता था और बीच-बीच में चमड़े की रचना के संप्रदायवाली वर्मयष्टि बटता जाता था। उस समय उसकी शराब ऐस जहरीले सर्प के विष से विषैली हो गई, जो कि आकाश में विहार करने से उड़ते हुए पक्षि-शावक की चोंच से खण्ड-खण्ड किये जाने से स्त्राव सहित था ।
उसने इसी अवसर पर ऐसा चारण ऋद्धि-धारक ऋषि युगल देखा, जो कि उसके गृह के निकटवर्ती मार्ग में आकाश से उतरता हुआ दृष्टिगोचर हो रहा था। जिसने धर्मोपदेश और पूर्वभवों को प्रकाश करने वाली विस्तृत धर्मकथाओं द्वारा शिष्य जनों के उपकार के लिए इच्छानुसार विहार किया था एवं जो आकाश से अवतरण करता हुआ ऐसा मालूम पड़ता था - मानों मूर्तिमान स्वर्ग व मोक्षमार्ग का जोड़ा हो है - इसे देखकर चाण्डाल को कौतुहल हुआ। यह भी उनके समीप गया और नगर के बीच मुनि-दर्शन से व्रत ग्रहण कर रहे श्रावक समूह को देखकर इसने उन्हें प्रणाम किया और सुनन्दन मुनि के आगे गमन करने वाले ज्येष्ठ भगवान् अभिनन्दन मुनि से इसने अपने योग्य व्रत ग्रहण करने की याचना की ।
१. चिन्तनात् । २. देशोना जना एव नलिनानि कमलानि तेषां वसने यरः । ३ उज्जयिन्यां । ४. बाण | ५. मध्ये मध्ये भक्षणं शाकं । ६. दियो । ७. संप्रदायां । ८. चष्टि । ९ यावसति । १०. विषये । ११. नगरमध्ये मुनिदर्शनात् ।