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________________ सप्तम आपवास: मुझे समुने मतादेवलस्तिमिलिगिरलो बभूव । भूपालोऽपि चिरकालेन कथाशेयतामाधिस्य पिशिताशमाशमानुबन्धात्सव' सिग्यौ तस्यैव महामोनस्य कर्णबिले तन्मलाशनशील: शालिसिक्थककलेवरः शफरोऽभत । तधन्वेष 'पर्याप्तोभयकरणस्तस्य वदनं ध्यावाय निमायतो गलमूहावगाहे 'घलानदीप्रवाह इवाने मालचरामीक प्रविश्य नव निजामगिरीश पापकर्मा निग्याणां वाणीरचर्मा खल्वेष पो प्रवक्तसंपातरतचेतस्थिपिन शमनोति अपितु याहांनि । मम पुनधि हवयेप्सितप्रभावाचादेतावन्मानं गात्रं स्यात्तवा समस्तमपि समुद्र तिसकलसस्थसंचार विधाम' इत्यभिध्यानाइल्पकायफल:११ वाकुलो निस्खिलनप्राधारामहाबहाषीनो मीन: कालेन विषयोत्परा चोत्तमतस्त्रास्त्रशसागरोपमायुनिलये निरये भवप्रत्ययापताविर्भूतजानविशेषो तापनिमिषनरी नारकपर्यायवो किलेवमालापं चतुः--'अहो अटपलब, जया निगिमकर्मणो लागो ममात्रागतिकवितष । तब तु मत्काविले मलोपजीवनस्य कथमप्रागमनममत । 'महामरस्य, चेष्टितावपि दुरन्तदुःखसंबन्धनिबन्धनावशुभध्यानात ।' भवति चात्र लोकः कुछ काल के बाद सौरसेन राजा भी भरकर मांस-भक्षण के अभिप्राय के निरन्तर संस्कार से उसी समुद्र में उसी महामफाछ के कर्णरूप विल में कानों के मेल का भक्षण करने वाला और शालि चावल के प्रमाण शरीर वाला मच्छ हआ। पयचात तन्दुलमच्छ स्पर्शन-आदि इन्द्रिय ब मन को पर्याप्ति को पूर्ण करने वाला हुआ। महामत्स्य मुंह खोलकर सोता रहता था और उसकी समुद्र-नदी के संगम के प्रवाह-सरीखी विस्तृत गहरी गलेरूपी गुफा में अनेक जलचर जोवों की सेना घुसकर जीवित निकल आती थी। उसे देखकर तन्दुल मत्स्य सोचता था 'यह मत्स्य बड़ा पापी और भाग्य-हीनों में अग्नेसर है, जो अपने मुंह में स्वयं ही आने वाले मत्स्य-आदि जल जन्तुओं को भी नहीं खा सकता। यदि हादिक इच्छा के प्रभाव वाले शुभ देव से मेरा इतना विशालकाय शरीर होता तो मैं इस समस्त समुद्र को भी समस्त जल-जन्तुओं के संचार-चिन्ह से शून्य कर डालता।' उक्त निन्ध दुनि के कारण अल्पकाय के लेशवाला तन्दुलमत्स्य और समस्त मकर-समूह के भक्षण से महाकाय महामत्स्य एक गब्यूति ( दो कोमा) प्रा शरीर और एक पल्म को आयु पुर्ण करके मरकर सातवें नरक में तैंतीस मागर की उत्कृष्ट आयु लेकर उत्पन्न हुए। वहां उन दोनों के उत्पन्न हुए विशिष्ट ज्ञान, भवप्रत्यय नामक अवधिज्ञान के अधीन थे, अर्थात्-उन्हें भवप्रत्यय अवधिज्ञान था। ये दोनों भूतपूर्व मत्स्य नारकी पर्यायधारी परस्पर में वार्तालाप करते थे—'क्षुद्रमत्स्य ! अनेक जलजन्तुओं के संहार संबंधी पाप कर्म करने वाले मुझ पापी का यहां जाना उचित ही था, परन्तु मेरे. कर्गों के बिलों में मल भक्षण करनेवाले तुम्हारा यहां आना कैसे हुआ?' तन्दुल मत्स्य-'महामत्स्य ! मेरा यहाँ आना ऐसे अशुभ घ्यान (आत-रौद्रध्यान) से हुआ है, जो कि विकृत मनोवृनि म उत्पन्न हुआ है और जो भयानक दुःख-संबंध का कारण है। प्रस्तुत विषय के समर्थक श्लोक का अर्थ यह है१. निन्। २. सूपकारोऽभूत् । ३. संतत्या प्रवर्तनात ! ४, भदाण । ५. शालिसियषमात्र । ६. 'अन्तःमारण ( मन ) यहिःकरण ( इन्द्रिम ) आहितशरीरः द्रव्येन्द्रिय-भादेन्द्रियपरिपूर्ण पर्याप्तिमाहितः संजातः । जीवास्त्रिप्रकाराःपर्याप्ताः अपर्यामा: लथ्यपर्याप्साः । ७. प्रसार्य । ८. समुद्रनदीसंगमवत् विस्तारे। *. 'निष्कामन्तं निरीक्ष्य' इसि ग०। ९. रहित । १०. मिन्टनात् । ११. भागः लेनः। १२. मत्स्यः । १३. भक्षणात् । १४. एकगम्यूतिकायः एकपम्पायुः । १३. मृत्वा । १६. भूतपूर्वमत्स्यो ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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