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________________ ३०२ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये तथ्यमातृपात्राणां विशुद्धो विषिशुद्धता । यसंस्कारशतेनापि नाजातिढिजता प्रजेत् ॥ ३९ ॥ तस्वाक्यसांस्यचार्याकबंदपद्य कविताम् । मतं विहाय हालय मांसं श्रेयोपभिः सदा ॥ ४० ॥ यस्तु लोल्पेन मांसाशी धर्मपीस तिपातकः । परवारविमाकारी मात्रा स यथा मरः ।। ४१ ।। भूयतामत्र मांसामानाभिष्यानमाप्रस्थापि पातकस्य फलम-श्रीमत्पुष्पदन्तभवन्ताजस्तारावतोणनिविपत्तिसपावितो. “शान्विरासयां फाकन्यां पुरि श्राधकान्वधर्मभूतिः सौरसेनो नाम नृपतिः कुलषर्मानुरोषः बुद्धघा गृहीतपिशितात: "पुनर्वेक्वंद्यावतमतमोहितमतिः संजात जाङ्गलनिमित्तानुमतिरङ्गीकृत्तवानु नियहणाज्जनापवादाजुगुप्समानो मनोविधान्तिहेतुना कर्मप्रियनामकेतुना वल्लवन रहसि बिलस्थलजलान्तरालचरतरप्तमा 'नाययनप्यनेकरामफार्थपर्याकुलमानसतया माप्तभकणक्षण १२ नाप। कर्मप्रियोऽपि तथा पृथिवीश्वर निदेशमनुदिनमनुतिष्ठन्नेकदा वाकुपाशोपतः प्रेत्य स्वयंभूरमणाभिवान जैसे सैकड़ों संस्कारों से सुसंस्कृत हुआ शुद्र ग्राह्मण नहीं हो सकता [ वो हो सैकड़ों विधियों (प्रोक्षण व यज्ञमन्त्रादि विधियों ) से शुद्ध किया हुआ मांस भी माद्ध नहीं हो सकता क्योंकि द्रव्य, दाता और पाव इन तीनों के शुद्ध हो जाने पर शुद्ध विधि घटित होती है।। ३९ । आत्मकल्याण के इच्छुक मानवी को चौद्ध, सांख्य, चावकि, वैदिक, वेद्य और शैवों को युक्ति-शून्य मान्यता पर ध्यान न देकर सदा के लिए मांस का त्याग कर देना चाहिए ।। ४० ।। जैसे गो परस्त्री-लम्पट मनुष्य माता के साथ रतिविलास करता है, वह दो पाप ( कुशील ब अन्याय ) करता है वैसे ही जो मनुष्य धर्म-बुद्धि से लालसा पूर्वक मांस-भक्षण करता है वह भी दो पाप करता है ( मांरा-भक्षण का पाप और मांस-भक्षण को धर्म समझना रूप मिध्यात्व ) ।। ४१ ॥ मांस-भक्षण का संकल्प' { चिन्तन ) करनेवाले राजा सौरसेन को कथा| अब मांस-मक्षण के चिन्तनमात्र से होनेवाले पाप के विषय में एक कथा है, उसे सुनिए-] ऐसो काकन्दो नामकी नगरी में, जो कि श्रीपूष्पदन्त भगवान के जन्मोत्सव के लिए आये हुए इन्द्र द्वारा की जानेवालो उत्सव लक्ष्मी की स्थान थी, श्रावक कुलोत्पन्न 'सौरमेन' नाम का राजा राज्य करता था। उसने अपने कुलधर्म के अनुसरण की बुद्धि से मांस-भक्षण का त्याग स्वीकार किया था। परन्तु बाद में जब वैद-वचन, वेद्य-वचन व व दर्शन रो उमकी बुद्धि विपरीत हो गई तब उसे माँस-भक्षण की इच्छा को अनुसरण करने वाली बुद्धि उत्पन्न हुई। इसलिए वह स्वीकार की हई प्रतिज्ञा के निर्वाह करने में असमर्थ हो गया । परन्तु वह लोकापवाद से डरता था। यद्यपि वह अपने मन को आराम देने वाले 'कप्रिय नामरूपी ध्वजा वाले रसोईए से एकान्त में अनेक विलों में रहने वाले जन्तुओं, जलचर, थलचर एवं भूमिचर जीवों का मांस मंगवाता था, परन्तु उसका मन अनेक राजकार्यों में व्याकुलित रहता था, इसलिए उसे माँस-भक्षण का अवसर नहीं मिलता था। कर्मप्रिय' रसोईया भो राजा की आज्ञा के अनुसार प्रतिदिन मांस पकाता था । एक दिन उसने सांप के बच्चे का मांस पकाया और उसो के जहर से पीड़ित हुआ और मरकर वह स्वयं भूरमण' नाम के चिह्न याले समुद्र में अनेक मछलियों को निगलने वाला, विशालकाय व शक्तिशाली महामच्छ हुआ। १. भिषज । २. त्याज्यं । ३. भक्षकः धर्मनिमितं तस्य पातमद्वयं भवति । ४, चिन्तनमात्र । ५. उत्सवालस्मीस्थान । ६ वंदवचनवद्यदघनशववचनः । ७. मांसं । ८. निवडणमत्तीति निवर्हणात् । ९. वल्लव: स्यात् सूपकार गोदोग्वरि वृकोदरे । १०. एकान्ते । ११. सूपकारण कावा आनयनं कारयन् । १२. अवसरं । १३. सर्पशिशुना । १४. मृत्वा ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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