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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये ९४ तत्र च सवित्र्या प्रोक्षितदक्षिणानां च ब्राह्मणानां वचनात् सर्वेषु सवेषु हतेषु यन्मे मवेत्फलं देवि सदा भूयात् । इत्याशयेन स्वयमेव वेष्याः पुरः शिरस्तस्य चतं दास्या' ।। २१५ ।। विज्ञानिनां शिल्पविशेषभावावेवंविबारमेऽभिनिवेशतश्च स हन्यमानो हि न कामवस्थां सचेतना इत्यधिकां चकार ॥ २१६ ॥ पिष्टं मांसं परिकल्प्य तस्य महानसे प्रेषितवांस्ततश्च । अत्येषुरम्बासहितस्य देवी सा मे व्यघाड्रोजन मावरेण ॥ २१७॥ तानसा युष्टधीमें जननीयुतस्य संचारयामास विद्यामिषाणि || २१८ || चाय दूताः प्रहिता हि यावद्यावद्गृहेष्वाषथमीश्यते । जातं नृपे वृष्टिविषं जनानामिति स्म तावद्विससर्ज लोकम् ॥ २१९ ॥ errearratea fart केशान्हा नाथ नायेति गिर्फ गिरन्तो निपत्य में वक्षसि दुःखितेव हरोष कण्ठं यमपाशिव || २२० ॥ अभ्येऽपि ये स्त्रीचतुरक्तविसा विश्वासमायान्ति नराः प्रमत्ताः । प्रायो वशेयं नतु तेष्वक्यं नदीतटस्येष्विव पावपेषु ॥ २२९॥ आeed परिपूर्णकामितफलाः कामं भवन्तु प्रजः क्षोणीशाः प्रतिपालयन्तु वसुधां धर्मानुयहोत्सवाः । 'हे राजन् ! क्या कोई भी दूसरों के आग्रह से पापकर्म करता हुआ देखा गया है ? जिससे तुम ऐसे निन्द्य मार्ग में प्रवृत्त हुए हो ।' उक्त अपशकुन होते के अनन्तर में, चण्डिकादेवी के मन्दिर में माता के पीछे गया । इससे ऐसा मालूम पड़ता था मानों नियति ( भवितव्यता ) किसके द्वारा उल्लङ्घन की जा सकती है ? इस वचन को सत्यता में प्राप्त करा रहा हूँ। उस चण्डिकादेवी के मन्दिर में प्रोक्षित करने के कारण दान प्राप्त करनेवाले ब्राह्मणों के वचन से afisarat ! 'समस्त प्राणियों के मार देने पर जो कुछ फल होता है, वह फल यहाँपर मेरे लिए प्राप्त होवे ।' ऐसे अभिप्राय से मैंने स्वयं चण्डिकादेवी के सामने छुरी से उस मुर्गे का मस्तक काट दिया * ।। २१५ ।। विज्ञानियों को शिल्पकला के अतिशय से और सर्वजीव-वघ के संकल्परूप मेरे अभिप्राय से मेरे द्वारा घात किये जानेवाले उस आटे के मुर्गे ने जोवित मुर्गे से भी अधिक कोनसी अवस्था नहीं की ? ॥ २१६ ॥ मैंने उस मुर्गे के चूर्ण में 'मांस' ऐसा संकल्प करके रसोई घर में भेज दिया, फिर उस दिन से दूसरे दिन अमृतमत्तिदेवी ने माता सहित मेरे लिए आदरपूर्वक भोजन बनाया " ॥ २१७ ।। उस पापिनी अमृतमति ने, माता के साथ व कुसुमावली नाम को पुत्रवधू तथा यशोमतिकुमार के साथ हर्षपूर्वक भोजन करनेवाले मातासहित मेरे भोजनों में विषभोजन प्रवेश कर दिया । अर्थात्-उसने मेरे लिए व मेरी माता के लिए विषभोजन दे दिया | अर्थात् - यशोमतिकुमार व कुसुमावली का भोजन पात्र एक था और चन्द्रमति एवं यशोधर का भोजन-पात्र एक था" ।। २१८ ।। जब तक वैद्य बुलाने के लिए दूत भेजे गए और जब तक गृह में जहर उतारने की औषधि देखी जाती है तब तक उसने लोगों को इसलिए भेज दिया कि राजा में लोगों का दृष्टिविष उत्पन्न हुआ है ॥ २१९ ॥ एकान्त देखकर व केश विख़राकर 'हा' नाथ हा नाथ' इसप्रकार वाणी बोलती हुई वह दुःखित- सरीखी होकर मेरे वक्षःस्थल पर गिरी। फिर यमराज को जाली सरीखी उसने मेरा res बाँध लिया ।। २२० ।। यशोधर के सिवाय दूसरे भी जो पुरुष स्त्रियों में अनुरक्त होने से असावधान होते हुए विश्वास प्राप्त करते हैं, निश्चय से उनकी भी प्रायः करके यही दशा होती है, जैसे नदी के तटवर्ती वृक्षों की होती है || २२१ ।। प्रजा के लोग प्रलयकाल पर्यन्त अभिलषित फल परिपूर्ण करनेवाले यथेष्ट होवें । धर्मो १. 'शत्रात्' इति पाठान्तरं । २. अतिशयालंकारः । ३. व्यतिरेकालंकारः । ४. रूपकालंकारः ५. सहोवत्यलंकारः । ६. नात्यलंकारः । ७. उपमालंकारः । ८. उपमालंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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