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________________ चतुर्थं आवास: सन्तः सन्तु सरस्वतीप्रणयिनः सार्धं धियः संगर्भ भूगावेष जिनोक्तिमीतिकसतारामस्त्रिलोकीमुदे ||२२२|| मया वागर्थसंभारे भक्ते सारस्वते रसे कवयोऽन्ये भविष्यन्ति नगपुष्टिभोजनाः ॥ २२३॥ I इति सकलतार्किकलो कचूडामणेः श्रीमन्नेमिदेव भगवतः शिष्येण सद्योनवद्यगद्य पद्म वापरच कति शिखण्डमण्डनीयचरणकमलेन श्रोसोमदेवसूरिणा विरचिते यशोधरमहाराजचरिते यशस्तिलकापरनाम्नि महाकाव्येऽमृतमति महादेची बुजिलसमो नाम चतुर्थ आश्वासः ।। ( पुजा व दानादि) में आनन्द प्राप्त करनेवाले राजालोग पृथिवो को रक्षा करें। विद्वान् पुरुष लक्ष्मियों के सायं सरस्वती (जिन वचन । से स्नेह करनेवाले हों एवं यह जिनवचनरूपी मोतियों को लता का बगीचा तीन लोक के आनन्द के लिए होते' ।। २२२ ।। जब मुझ सोमदेव ने शब्दसंस्कार व शब्दार्यसंस्कार सहित शास्त्ररूप अमृतरस का आस्वादन कर लिया तब दूसरे कविलोग निश्चय से उच्छिष्ट भोजी होंगे ।। २२३ ।। इसप्रकार समस्त तार्किक - ( पड् दर्शन वेत्ता ) चकवतियों के चूडामणि ( शिरोरत्न या सर्वश्रेष्ठ ) श्रीमदाचार्यं नेमिदेव के शिष्य श्रीमत्सोमदेव सूरि द्वारा, जिसके चरणकमल तत्काल निर्दोष गद्यपद्य विद्यावरों के चक्रवर्तियों के मस्तकों के आभूषण हुए हैं, रचे हुए 'यशोधरचरित' में, जिसका दूसरा नाम 'यशस्तिलक महाकाव्य' है, 'अमृतमति महादेवी दुर्विलसन' नामका चतुर्थं आश्वास पूर्ण हुआ । इसप्रकार दार्शनिक चूडामणि श्रीमदम्बादासजो शास्त्री व श्रीमत्पाद आध्यात्मिक सन्त श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसाद जो वाणीं न्यायाचार्य के प्रधानशिष्य अनन्यायतीर्थ, प्राचीन न्याय तीर्थं काव्यतीर्थ व आयुर्वेद विशारद एवं महोपदेश आदि अनेक उपाधिविभूषित सागर निवासी श्रीमत्सुन्दरलाल जी शास्त्री द्वारा रची हुई श्रीमत्सोमदेवसूरिविरचित 'यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य' की 'यशस्तिलकढीविका' नामकी भाषाटोका में अमृतमतिमहादेवी - दुविलखन नामका चतुर्थ भारवास पूर्ण हुबा । १. अशियालंकारः । ९५ २. रूपकोपमालंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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