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________________ ३१४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये 'भस्तकमध्यास्त धनधुसृणरसाणितवणपुरपुररुप्रोकीलकान्तिशाली गीतमाला। तनु तं गृहीतवतापरि. स्थागभोवमानचेतनं मृगसेनमधामिकलोकव्यतिरिक्त रिक्तमान्तं परिधि," अतुम्सकोपारितार्या सार्या घण्टाश्या यमघण्टेव मिमपि कर्णफट क्षणम्सी कुटोरान्तःश्रितशरोरा "निविचरमर' प्रदायास्यात् । मृगसेनोऽपि तया निवेभप्रशानस्तन्मन्त्र स्मरणसचित्तः पुराणतरतरभित" मुन्ट्रोर्षे निषाय सान्वं निवायत्रतत्तभित्ताभ्यन्तरविनिःसृतेन सरीसृपसुतेन १ चष्टः कष्टमवस्यान्तरमाविष्टीच्युष्टसमये: घण्टया पृष्टः। पुनरनेन सामुष धमध्यानुगमोचितनिश्चययात्मनि विहितबनिन्दया शोधितश्च । ततः सा 'यदेवास्य व्रतं तदेव ममापि । अन्मान्तरे चायमेव मे पतिः' इत्याक्तिनिवाना समित्समिनमहसि "द्रविणोदप्ति हत्यसमस्नेहं हं वहाव । अय पिलासिनोविलोचनोत्पलपुनकक्तयन्दनमालायां विशालायां पुरि विश्यगुणामहादेवीधरो विश्वभरो विश्वभरो नाम नपतिः । धनश्रीपतिः पिसा च दुहितुः१५ सुनन्धोर्गुणरालो नाम श्रेष्ठो । तस्य किल गुगपालस्य मनोरथपान्यप्रीतिरपालिकायामेतस्यां २"कुलपालिकायामनेन मृगसेनेन समापनसल्याया" सत्याम, असो वसुधापतिविटकथासंसृष्टतपा २५प्रतिपन्नपाञ्चजनोनभावो नर्मभर्मनाम्नो मर्मसचिरस्य मुताय नर्मधर्मणे गुणपालभंष्ठिनखिल. ___ इतने में ऐसा सूर्य अस्ताचल पर्वत पर आश्रित हुआ—अस्त हो गया। जिमने धने कुङ्कुम रम से वरुणपुर की स्त्रियों की गालों को कान्ति लालिमा-युक्त-को है। इसके पश्चात् स्वीकार किए हुए ब्रत का पालन करने से प्रसन्न चित्त होकर ग्यालो हाथ लौटे हुए धार्मिक मृगसेन को आते हुए जानकर उसकी पत्नी घण्टा उसपर विशेष कुपित हुई और यमराज की घण्टासरीखी कण-कट गाली-गलौज बकती हुई आपनी झोपड़ी में चली गई और अन्दर से किवाड़ निश्छिद्र ( बन्द ) करके बैठ गई। पत्नी द्वारा गृह में प्रवेश रोका हुआ मृगसेन भी पंच नमस्कार मन्त्र के स्मरण करने में संलग्न चित्त हुआ और एक जीणं वृक्ष के खण्ड को तकिया बनाकर मस्तक के नीचे रखकर गाड़ निद्रा ले रहा था, कि इतने में उस वृक्ष की जड़ के भीतरी भाग से निकले हुए सांप के बच्चे ने उसे डस लिया, जिसके कारण विशेष फैट अवस्था में प्रविष्ट हुआ-मर गया। प्रभात होने पर जब उनकी घष्टा नाम की स्त्री ने उसे मा देखा तब उसने अपनी विशेष निन्दा करके विशेष शोकाकुल होकर इसी के साथ अग्नि में जल जाने का निश्चय किया तथा उसने निदान किया, कि 'जो इसका व्रत था वही मेरा भी है और दूसरे जन्म में भी यही मेरा पति हो' 1 उसके बाद उसने ईधन से प्रज्वलित कान्तिवाली चिता की अग्नि में घी-सरीखी चिकनी अपनी देह की आहुति दे दी-अपनी देह होम दी। वैश्याओं के नेत्ररूपी कमलों के द्वारा दुगुनी हुई तोरण-पंक्तिबाली उज्जयिनी नगरी में विश्वगुणा' नाम की पट्टरानी का स्वामी और विश्व का पालक 'विश्वम्भर' नाम का राजा था। वहीं पर गुणपाल नाम का सेठ था । उसको धनधी नाम को प्रिया थी और सुबन्धु नाम की पुत्री थी । जव गुणपाल के मनोरथरूपी पधिक के लिए प्रतिरूपो प्याऊसो उसकी पत्नी इस मगसेन धीवर के आये हुए जीव से गर्भवती हुई तब वहाँ के १. अस्तपर्वतं । २. आश्रितः। ३. पृथग्भूतं । ४, ज्ञात्वा । ५. निश्छि। ६. कपारं । ५. पंचनमस्कार | ८. ९. पुराणतर--जीर्णवृक्षन्वण्र्ड काष्ठं। १०. निद्रां कुर्वन् । ११. अर्पण। १२. प्रविष्टः । १३. प्रभाते । १४. अग्निः । १५. अग्नी । १६, घृतच्चिकणं । १७. आहुतीचकार । १८. तोरण । १९ सुबन्धुपुत्री-तातः । २०. कुलभार्यायो। २१. गभियां। २२. भाण्डादिरतो नषः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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