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________________ सलम आश्वासः ३१५ फालाकलापालंकृतरूपसमन्वितां सुताममाश्वत । श्रेष्ठी दुष्प्रभेन राजा तमा थाचितः 'यवि नर्मसचिवमुताय मुर्ता वितरामि' सावश्यं कुलकमव्यतिक्रमो धुरपवादोपकमश्च । अब स्वाभिवासनमसिक म्यागासे' तवा सर्वस्यापहारः प्राणसंहारश्च' इति निश्चित्य प्रियसुहवः श्रीदत्तस्य वणिरुपले निक्षतने समणिमेखलकलत्रं कसत्र मवस्थाप्य 'स्वापतेयसारं बुहितरं घारमसाकस्य सुलभकेलिवनवना शनिवेश कौशाम्बीदेशमयासोस् । अत्रान्सरे श्रीमहरिनमन्दिरनिविशेषमाधरितपर्यापर्यटनी शिवगुप्तमुनिगुप्तनामानी मुनी श्रीवत्तप्रतिवेश'निवासिनोपासकेन प्रथाविधिविस्तिप्रतिग्रही कृतोपचारविहो । सामङ्गणापयां बनश्रियमपश्यताम् । तत्र पुनिगुप्तभगवास्किल फेवरनलिस्नानपरुषवपुथमुगमनीयसंगताङ्गाभोगविषमवधध्यचिह्नरवर कमात्रालंकारजुषमाप्तकान्तापत्परिजविरहवेहसादा गर्भगोरवसेवा च शिशिराजलया वतिनी स्थलकमलिनीमिव मलिनच्छविमुदवसि परिसरे परगृहनासविशीयमाणमुखभियं धनश्रियं निव्याय'५ असो, महीयसा शास्लुएनसामावासः कोऽप्यस्याः कुक्षी महापुरुषोऽवतीर्णः, येनावतीर्णमात्रेणापि 'दुष्णुत्रेणेमं बराको यथावेशा बशामशिश्रयत्' इस्यभाषत । राजा विश्वम्भर को विटों के साथ वार्तालाप करने में शामिल होने के कारण भाण्डजन बहुत प्रिय थे। अतः उसने नर्मभर्म नाम के विदूषक के पुत्र नर्मधर्म के लिए गुणपाल सेठ से समस्त कलाओं की श्रेणी से अलकृत व सर्वाङ्ग सुन्दरी पुषी की याचना की। दुर्बुद्धि राजा की इस मांग से गुणपाल ने निश्चय किया-'यदि मिडाक के पुत्र को कन्या देता है नो मन्वनय कुल-परम्परा का उल्लङ्घन होता है एवं अपकीति भी फैलतो है और यदि स्वामी की आज्ञा को उल्लङ्घन करके भी यहाँ स्थित रहता हूँ तो सर्वस्व अपहरण के साथ-साथ प्राण भी जाते हैं।' ऐसा निश्चय करके रत्नमटित करधोनी से अलकृत जङ्घाओं वाली अपनी पत्नी को तो अपने प्रिय मित्र श्रीदत्त सेठ के यहां रक्खी और सार सम्पत्ति-सी अपनी पुत्री को अपने अधीन करके ( साष लेकर ) क्रीड़ावनों ब जलाशयों की स्थानीभूत 'कौशाम्बी' देश की ओर प्रस्थान किया ।' इसी बीच में धनाड्य और निर्धनों के गृहों में समान चित्तवृत्तिपूर्वक ( भेद न रखते हुए ) आहारचर्या के लिए विहार करनेवाले शिवगुप्त व मुनिगुप्त नामके दो मुनिराजों ने श्रीदत्त के आंगन में बैठी हुई धनश्री को देखा, जिनका पड़गाहना श्रीदत्त के निकट रहनेवाले ( पड़ोसी) श्रावक द्वारा यथाविधि किया गया था, एवं जिनकी शारीरिक सेवा-शुश्रूषा की गई थी। उनमें से मुनिगुप्त मुनि ने ऐसी धनश्री को देखकर कहा, जिसका शरीर तैल के बिना स्माम करने से रूम था 1 जिसके शारीरिक अङ्गों की विस्तृत कान्ति शुक्ल वस्त्र से सुशोभित थी। जो सौभाग्य-सूचक मङ्गलसूत्रमात्र आभूषण को प्रांतिपूर्वक धारण कर रही थी। जिसका शरीर हितेषी जन, पति, पुत्री एवं परिजनों के वियोग से कृश हो गया था। जो गर्भ के भार से खेद-खिन्न थी और जिसकी कान्ति उस प्रकार म्लान थी जिस प्रकार शीत ऋतु संबंधी दिवसों के निरन्तर आने से स्थल कमलिनी की कान्ति म्लान होती है। एवं जो गृहाङ्गण में स्थित थी और जिसकी मुखश्री दूसरे के गृह में रहने से म्लान हो रही थी। 'अहो आश्चर्य है कि निस्सन्देह इसकी कुक्षि में ऐसा कोई महान् पापों का स्थान ( बड़ा पापी) १. चेद्ददामि । २. राजादेशं। ३. तिष्टामि । ४. जघनं यस्याः । ५. भााँ, कलवं अघनं भार्या चेति पञ्जिकाकारः । ६. धनं । ७. जलाशयः । ८. सघननिर्धनगृहसमवित्तम्। ९. निकटयासिना। १०. स्वीकारी। ११. शुषलवस्त्रयुक्ता जङ्गलिक मस्याः । १२. दवरकः दोरः । १३. वास्नो पासरः । १४. उदवसितं गृहं । १५. परिसरः अङ्गणं | १६. म्लायन्ती। १७. दृष्ट्वा । १८. पापानां। १९. दुष्टसुतेन ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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