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________________ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये मुनिषः शिवगुप्तः–'मुनिगुप्त, भवं भाषिष्ठाः। यतो पद्यपीयं अष्ठिनो कानिषिदिनान्येवभूता एती पराधिष्ठाने तिष्ठति, तथाप्येतामग्वनेन सकसवणिक्पतिना मिरवषिशेवघोश्वरेण' विश्वभरेश्वरसुतावरण , भवितव्यम्' इत्यवोचत् । एतमच स्वकीयग्विालिन्दकगतः श्रीपत्तो निशम्य 'न खल प्रायेणासत्यमिवमुक्तं भविष्पति महः' हरबधार्य मोमवसर्प तरीहिसदत्तचेतावनिरासोत । घनश्रीश्च परिभातप्रसवदिवसा सती सुतमसूत । श्रीदत्तः"चित्रभानुरियायमाषयाश खलु वालिशः । “तसंभाप्तस्नेहायामेवास्य जनन्यामुपांशवण्ड: श्रेयान्' इति परामृष्य प्रसूतिदुःखेनातुच्छमूर्यापाधयां यनषियमाकलम्प निमपरिजन "रतीमुखेन 'प्रमोत'२ एवायं तनयः संजात:' इति प्रसिद्धि विधायाकार्य चंकमाचरितोपचारप्रपश्यं १'वरचं 'जिह्माब्राह्मो "रहस्पनिकेतः कृतापायसंकेतस्तं स्तम्यपमेतल्या समर्पयामास | सोऽपि जनंगमः स्वर्भानुप्रण करेण रामरहिममिव १९ तं स्तनश्यम्परुष्य निःशताकावकाश देशमाश्रित्य महापुरुष आया हुआ प्रतीत होता है, जिस दुष्ट पुत्र के गर्भ में आने मात्र से इस बिचारी ने ऐसी शोचनीय दशा का आश्रय किया है।' उक्त वात सुनकर मुनियों में मुख्य या ज्येष्ठ 'शिवगुप्त' मुनिराज ने कहा-'मुनिगुप्त ! ऐसा मत कहो, क्योंकि यद्यपि यह सेठानी कुछ दिनों तक ऐसी शोचनीय दशा का अनुभव कारती हुई दूसरे के गृह में रह रही है, तथापि इसका पुत्र समस्त वणिकों का स्वामी, राज-श्रौष्टी व निस्सीम निधि का स्वामी एवं विश्वम्भर राजा की राजकुमारी का वर होना चाहिए।' अपने गृह के बाह्य द्वार पर बैठे हुए थीदत्त ने उक्त ऋषि की बात सुनकर निस्सन्देह महर्षि द्वारा कही हुई वाणी प्रायः झूठी नहीं होती।' ऐसा निश्चय करके उसने अपनी चित्तवृत्ति को उस प्रकार दुष्ट संकल्प को ओर लगाई जिस प्रकार दृष्टि-विषवाला सांप दर्शन मात्र से दुध संकल्प ( डंसने ) की ओर लगाता है। प्रसव के दिन समाप्त करके धनश्री ने पुत्र को जन्म दिया। श्रीदत्त ने विचार किया-'निस्सन्देह यह बच्चा अग्नि की तरह अपने आश्रय का भक्षक है, माता का इस पर स्नेह उत्पन्न होने के पूर्व ही इसका गुप्तवय कर देना प्रेयस्कर है ।' अतः उसने धनयो को प्रसूति के कष्ट से विशेष मूर्छा का आश्य करनेवाली (मूच्छित-बेहोश) निश्चय कर अपने कुटुम्ब को एक वृद्ध स्त्री के मुख से 'बच्चा मरा ही पैदा हुआ है। ऐसी प्रसिद्धि करके कुटिल भाषा के रहस्य के स्थानी भूत हुए इसने सेवा का प्रपञ्च करनेवाले-घूसखोर एक चाण्डाल को बुलाकर वध का संकेत करते हुए उसके लिा बच्चा समर्पण कर दिया। वह चाण्डाल भी राहु-सरीखे कृष्ण कान्ति वाले हाथ से चन्द्र-सरीखे बच्चे को आच्छादित करके १. मुख्यः। २. परगृहे । ३. 'स्थायिधन' टि. स्व०, 'शेवधिः निधिः' इति पञ्जिकाकारः । ४. राजकन्या-भा भविता। ५, प्रयाणप्रवणालिन्दबहिरिप्रकोष्ठके। ६. मग्निवत् । ७. आश्रयं अदनातीति । ८. तस्मात् कारणात् । ९. गूदवधः । १०. संश्रयां । ११. वृद्धा स्त्री। १२. मृत एव जनितः । १३. श्वपचः, जनंगमः, अन्त्यायसायी, दिवाकीतिश्च पाण्डालः । १४. कुटिला । १५. वाणी। १६. शिशुं । १७. जनंगमस्य । १८. राहसदृशकृष्णेन । १९, 'चन्द्रमसमिय' टि० ख०, 'रामरश्मिः हरिणकिरणश्च श्वेतभानुश्चन्द्र इति यावत् । रामःसितेऽपि निर्दिष्टो हरिणश्न तथा मतः इति वचनात्' इति पञ्जिकाकारः । २०. एकान्तं ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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