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________________ सप्तम आपवासः पुष्यपरमाणुपुञ्जभिव शुभशरीरभाजमेनमवेक्ष्य संजात करणारसप्रसर सप्रमुखः सुखेन विनिधाय धाम "वकीयमटीकल लाषीनं पुनरस्थं वापरभव भगिनोपतिरदोषायणिक पणपरमेष्ठी इन्द्रवतश्रेष्ठी विषयाडम्बरिशशण्ड मध्यपीठोपकण्ठ गोष्ठी 'ममनुसृतो "विषय समीड कीडागतगोपाल बाल कलपन परम्परालापात्सतर १०. "तानकसंतान परिवृतमनेकचन्द्रकान्तोपलान्तरालनि लीनमरणमणिनिधानमिव तं जातमुपलभ्य स्वयमदृष्टमन्वभववनरखा "सबुद्धधा साध्वनुरुध्य 'स्तनंधयावधान धूतवोधे राधे १४ सवायं गूढगर्भसंभवस्तद्भवः इति प्रबंधित प्रसिद्धिमंहान्तम परयोत्पसि महोत्स धमकात् । भीतः १"श्रवणपरम्परया समेतं वृत्तान्तमुपश्रुत्याश्रित्य च शिशुविनाशनाशयेन कीनाश इव तत्रिवंशम् " 'इन्द्रबत्त, अयं महाभागधेयो भागिनेयो ममेव तावद्वानि वर्षसाम्' इत्यभिषाय सभागिनोक "तोकमात्मावासमानीय पुरावत्क्र रमः १९ संज्ञपनार्थमन्तावसायिने प्रायच्छत । सोऽपि विवाफीतियपात पुत्रभाण्डः सत्वरमुपर गह्वरानुसारो २२ समोरवशविगलितधनाम्बराबरणं हरिणकिरणमिव ईक्षणरमणीयं गुणपालसनयमालोक्य सवधहृदयः प्रवल ३१७ एकान्त स्थान में ले गया। वहां पुण्य-परमाणुओं के पुञ्ज जैसे सुन्दर शरीर-धारक इस बच्चे की देखकर इसे विशेष करुणारस उत्पन्न होने से इसका मुख प्रसन्न हो गया, अतः वह जीवित बच्चे को सुख से लिटाकर अपने स्थान पर चला गया । इसके पश्चात् श्रीदत्त का छोटा बहनोई 'इन्द्रदत्त' नामका सेठ, जो कि सभी वणिक् व्यवहार में श्रेष्ठ था, बेचने के लिए इकट्टे किये हुए बैलों के झुण्ड की अधीनता वाले स्थान के निकटवर्ती गोकुल में पहुंचा और उसे ऐसा बालक प्राप्त हुआ, जो कि बछड़ों के लिए हितकारक प्रदेश के निकट क्रीड़ा करने के लिए माये हुए ग्वालों के बच्चों की मुखपरम्परा के वार्तालाप से और छोटे बछड़ों के झुण्ड से घिरा हुआ था । एवं जो अनेक चन्द्रकान्त मणिमयी शिलाओं के बीच में मौजूद था। जो ऐसा मालूम पड़ता था - मानोंलाल मणियों की निधि ही है। उसने कभी स्वयं पुत्र का मुख नहीं देखा था, अर्थात् — उसके पुत्र नहीं था, इसलिए उसने इसे अपने पुत्र की बुद्धि से उठा लिया। उसने विशेष आग्रह पूर्वक अपनी पत्नी राधा से कहा-'सदा बच्चे को लालसा के ध्यान में अपनी बुद्धि प्रेरित करने वाली प्रिये राधे ! यह तुम्हारे गूढ़ गर्भ से उत्पन्न हुआ पुत्र है ! उसने उक्त प्रकार प्रसिद्धि को वृद्धिगत करते हुए पुत्रोत्पत्ति का महान महोत्सव किया । श्रीदत्त कर्णपरम्परा से यह समाचार सुनकर बच्चे का घात करने के दुरभिप्राय से यमराज सरीखा होकर इन्द्रदत्त के गृह पर पहुँच कर उससे बोला- ' इन्द्रदत्त ! यह महाभाग्यशाली भानजा मेरे ही स्थान पर बड़ा होना चाहिए ।' और बहिन महित बच्चे को अपने गृह पर ले आया एवं पूर्व की तरह निर्दय बुद्धि वाले उसने वध करने के लिए बच्चे को चाण्डाल के लिए दे दिया। वह चाण्डाल भी पुत्ररूपी बर्तन को लेकर शीघ्र ही एकान्त गुफा की ओर चल दिया। जब उसने ऐसे गुणपाल के शिशु को देखकर, जो कि वायु के संचार से जिसके ऊपर से मेघ-पटल का आवरण हट गया है, ऐसे चन्द्रमा सरीखा नेत्रों को प्यारा है। उसका ४. वणिग्व्यवहारः । ९. मुखपरम्परा । १६. यमः । १. स्वगृहं गतः । २. श्री दत्तस्य । ३. लघुभगिनी । गोकुलस्थानं । ७. वत्सेभ्यो हितप्रदेश | ८. समीपं । १२. वाळं । १३. पुत्र । १४. हे भायें ।। १५. कर्णपरम्परा । पुत्रं वा । १९, मारणार्थं । २० मातङ्गाय । २१. एकान्तं रहः । ५. वृषभाः । ६. गोष्ठीनं १०. लघुया । ११. वृषभाः । १७. इन्द्रदत्तगृहं । १८. अपत्यं २२. वायुपरवशेन । २३. चन्द्रमिव ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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