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________________ १५४ यशस्तिलकचम्पूकाव्यै ततविहाय वेहस्य मुखानि येषां दुःखेन सौख्येषु मनीषितानि । ते फोरके कर्षणकारशीला: शालीन्युननमुणहरन्ति ॥६६॥' हरप्रबोधः 'मत्यथा लोकपाण्डिस्यं पंपाण्डित्यमन्यथा। सन्यथा तत्पदं शान्तं लोकाः क्लिश्यन्ति चान्यया ।। भगवतो हि भगस्य सकलजगवनप्रहस! द्विवागमस्य मार्गा वक्षिणो वामश्च । तत्रलोकसंचारणार्थ दक्षिणोमार्गः। तदाह-- प्रपञ्चरहितं शास्त्रं प्रपञ्चरहितो गुरुः । प्रपञ्चरहितं मानं प्रपञ्चरहितः शिवः ।।६८ः। शिवं शक्तिविनाशेन ये वाञ्छन्ति नराधमाः। ते भूमिरहितातीजात्सन्तु नूनं फलोत्तमाः ॥६५॥ भक्तिमुक्तिप्रवस्तु वाममार्गः परमार्थतः । तबाह अग्निवत्सर्वभक्षोऽपि भयभक्तिपरायणः । भुसि जीपमवाप्नोति मुक्ति तु लभते मृतः ।।७०॥ इममेव च मार्गमाश्रित्याभाषि भासेम महाकविना-- ऐया सुरा प्रिपतमामुक्षमोक्षणीयं प्रायः स्वभावललितोऽविकृतश्च वेधः । पुरुष इन दोनों को परस्पर. उत्कृष्ट प्रीति को सज्जनों ने स्वर्ग कहा है ।। ६५ ।। अतः जिनके मनोरथ, शारीरिक सुख त्याग कर कष्ट सहन द्वारा सुख-प्राप्ति करने के हैं, वे धान्यकों पर हल चलाने की प्रकृति वाले होते हुए निस्सन्देह खेत से धान्य उखाड़ते हैं | भावार्थ-जैसे हरी धान्य के पुष्पों पर हल चलाते हुए या उनको जोतते हुए, मानवों के लिए उपजाऊ भूमि के बिना खेत से पान्य उखाड़ना असम्भव है, वैसे ही शारीरिक सुखों को तिलाञ्जलि देकर तपश्चर्या का कष्ट करते हुए मानवों को निस्सन्देह सुख प्राप्त होना अगम्भव है। ॥६६॥' फिर गड़े हुए धन को बताने वाले शास्त्र के वेत्ता 'हरप्रबोध' नामक तपस्वी ने कहा 'लोकपटुता ( व्यवहार-चातुर्य ) दुसरी वस्तु है और वेदों की विद्वत्ता दूसरी चीज है एवं शान्तियुक्त मोक्षपद दुसरी असाधारण वस्तु है और मनुष्य समूह उसकी प्राप्ति के लिए दूसरे प्रकार से कष्ट उठाते हैं। अभिप्राय यह है कि लोक में ऐसा देखा जाता है कि विद्वान् पुष्प व्यवहार-गून्य होता है और व्यवहारो विद्वत्ता-शून्य होता है, इसी प्रकार परम शान्ति स्थान मुक्ति भिन्न है और उससे अशान्त उपाय भिन्न है ।। ६७ ॥ भगवान् ब्रह्मा या श्री शिव के आगम ( वेद ) का मार्ग, जिसको सृष्टि समस्त संसार के अनुग्रह निमित्त हुई है, निश्चय से दो प्रकार का है। दक्षिण मार्ग और वाममार्ग। उनमें से दक्षिण मार्ग लोक व्यवहार-संचालन के लिए है, उसके विषय में कहा है-शास्त्र (वेद व स्मृतिशास्त्र ) प्रपञ्च-रहित ( भ्रम-शून्य ) है और गुरु प्रपञ्च-रहित (मायाजाल-शून्य ) है एवं ज्ञान प्रपञ्च-रहित ( संदेह, मिथ्या व विपर्यम्त-रहित) है तथा शिव प्रपञ्च-रहित (मांसार के माया-आदि से मुक्त ) है ॥ ६८ ।। जो मनुष्यों में क्षुद्र मनुष्य शक्ति-विनाश' से ( माया के विनाकामनीय कामिनी के बिना) शिव ( सदाशिव ) को प्राप्ति चाहते हैं वे, निश्चय से खेत के विना ही केवल धान्यादि के बीज से धान्य-फलों के प्राप्त करने में उत्तम हों। अर्थात्-जैसे भूमि के विना केवल धान्य-बीज से धान्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, वैसे स्त्री के विना भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता ॥ ६९ । निश्चय से वाममार्ग विषय-भोग और मुक्ति देनेवाला है। उसने विषय में कहा है--जो मानव अग्नि के समान समस्त ( खाद्य-अखाद्य ) वस्तुओं का भक्षण करता हुआ भी केवल श्री शिव की भक्ति में तत्पर है, वह जीवित अवस्था में विषय भोग प्राप्त करता है और मरने पर मुक्ति प्राप्त करता है ।। ७० ॥ इसो वाममार्ग का आश्रय लेकर महाकवि भास ने कहा है-मद्य पीना चाहिए और प्रियतमा ( विशेष प्यारी स्त्री ) का १. निदर्शनालंकारः। २. स्वियं विमा ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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