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________________ सप्तम आश्वासः मरीचिवद्वाम्यामुगाम्या भवितव्यमिति प्रतीयते। तत्राहं तापवेकवेशयतिपूतात्माममात्मानम परधामसंनिधानं न संभावपेयम् । नरकान्तं राज्यम, वंषनारतो नियोगः, मरणान्तः स्त्रीषु विश्वासः, विपबन्ता खलेषु मंत्री, हप्ति बचनाविन्दिरामबिरामदलिनमनःप्रधारे राज्यभारे 'प्रसरसं यस च नाय पियासुम् । तन्नारदपर्वती परीक्षाधिकृतो' इति निश्चित्य "समिथमयमायुद्ध" मिर्माय प्रदाय च तान्याम् 'अहो, द्वाभ्यामपि भवपामिद युयुगल पत्र न कोऽप्यालोकते तत्र विनाश्य प्राशितय्यम्' इत्याविषेश । सावपि तवादेशन *हम्पवाहवाहनद्वितयं प्रत्येकमादाय यथाययमयासिष्टाम् । तत्र सत्स्यातिखर्षः पर्वतः "पस्त्य पाश्चात्यकुम्बामुपस चापाव च भटिमुरपुत्रमुबरानलपात्रमकार्षीत् । शुभाश्यविशारको नारवस्तु 'यत्र न कोऽप्यालोकते' इत्युपाध्यायोक्तं ध्यायन 'फो नामान पुरे कान्सारे वा साधणो योऽधिकरणं५३ मामेक्षणस्य यन्तरगणस्य महामुनिजनान्तःकरणस्य च' इति विचिन्त्य तव त पणिमुपाध्यायाय समर्पयामास । उपाध्यायो नारदमप्यूध्वंगमयबुद्धघ संसारतरस्तम्नमिय५ कचनिकुरुम्बमुल्पाटय स्वगलक्ष्मीसपक्षा वोक्षा• मादाय निखिलागमसमीक्षा शिक्षामनुधित्य चातुर्वण्यश्रमगसङ्घसंतोषगं गणपोषणमात्मसात्कृत्य "एकरवादिभावना शास्त्ररूपी नेत्र द्वारा ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करनेवाले क्षीरकदम्बक ने जब मुनियों की बात सुनी तब उसने निश्चय किया-कि 'वास्तव में इस महामुनि के वाक्य के अभिप्राय सं यह प्रतीत होता है कि हममें से दो निश्चय से अग्नि की शिखा की तरह ऊर्ध्वगामी हैं। उनमें से मैंने तो अपनी आत्मा को श्रावकों के चरित्र पालन से पवित्र किया है, अत: मैं अपने को नरक स्थान के समीप होने की सम्भावना नहीं कर सकता और वसु को, जिसके प्राण लक्ष्मीरूपो मदिरा के मद से मनोवृत्ति को कलुषित करनेवाले राज्य-भार में विस्तृत हो रहे हैं, कध्वंगामी होने की संभावना नहीं करता, क्योंकि नीतिकारों ने कहा है.--'राज्य का फल अन्स' में नरना है। शासन का फल बन्धन है। स्त्रियों में विश्वास करने से अन्त में मृत्यु होती है। दुष्टों की संगति अन्त में दुःख देनेवाली है।' अतः अब नारद और पर्वत परीक्षणीय हैं। ऐसा निश्चय कर उसने गेहूँ के आटे के दो मेढ़े बनाकर उन दोनों के लिए एक एक मेढ़ा देकर आज्ञा दो-शिष्ययुगल ! तुम दोनों इस मेले के जोड़े को जहां कोई न देख सके, ऐसे एकान्त स्थान पर मारकर खा जाओ ।' गुरु की आज्ञा से वे दोनों एक-एक मेढ़ा लेकर यथायोग्य स्थान पर चले गए। उन दोनों छात्रों में से सज्जनों के साथ मित्रता करने में लघु पर्वत नामके छात्र ने अपने गृह को पिछवाड़े भाग की बाड़ी के समीप जाकर कुल्हाड़ी वगैरह हथियार लेकर मड़े को अपनी जठराग्नि का स्थान बना लिया 1 किन्तु, शुभ-अभिप्राय में प्रवीण नारद ने तो 'जिस स्थान पर कोई नहीं देख सके' इस गुरु को कही हुई बात पर चितवन करके विचारा--'इस मगर व वन में ऐसा कौन सा प्रदेश है, जो अतींद्रिय दर्शी व्यन्तर देव-समूह के ज्ञान का स्थान नहीं है ? या महामुनि जनों के ज्ञान का विषय नहीं है ? ऐसा विचार कर वह मेढ़ा जैसे का तैसा उपाध्याय के लिए समर्पण कर दिया। शिक्षक ने जान लिया कि नारद भी स्वर्गगामी है । अतः उसने संसाररूप वृक्ष को जड़ सरोखे केश १. नीचस्थान-नरक । २. बिस्तरत्याग । ३, नाहं संभावयेयम् । ४. गांधूमचूर्ण । ५. मेपमगर । *. मेधयुगलं टि. ख०, पं० लू हव्यवाहवाहनः उरमः वृष्णिदच मेषः । ६. लगोयामध्ये । ७. लघुः । ८-११. गृहपश्चाभागमहावृत्तिकान्तरे नीत्वा कुम्बा तु महनावृत्तिरित्यमरः । १२, प्रदेशः । १३. स्थानं । १४. गेप । १५. अथ कांडे स्तम्घ. गुल्मी जवक: विटपश्च सः । १६. भावनाःपञ्च-एकात्वभावना, पोभाषना, श्रुप्तभावना, शीलभावना, धृतिभावना-- चेति भावनाः पञ्च ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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