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________________ अष्टम आश्वास! *प्रशन कमेण हेमं सिम पानं ततः परं चैव । सदनु च सर्वनिसि कुर्यावारुपश्वकस्मृती निरतः ॥४४॥ *कवलीघातप्रयायुधि कृतिना सकदेव विरतिमुपयाति । तत्र पुनर्ने विषियं ईवे कमविधिर्नास्ति ।।४४४॥ सरो प्रवचनकुशले साधुजने पत्नफर्मणि प्रवणे । वित्तं च समाधिरते किमिहासाम्य पतेरस्ति ॥४४५।। जोचितमरणाणसे सुहवनुरागः सुखानुबन्धविधिः । एते सनिवाताः स्युः सल्लेखमहानो पन्च ।।४४६|| करे ।। ४४२ ॥ धीरे-धीरे अम्न का त्यागकर दूध व मट्टा रग्ड लेबे फिर उन्हें भी छोड़कर गर्म जल रख लेवे, उसके बाद पंचनमस्कारमन्त्र के स्मरण में लीन होकर सब कुछ छोड़ देना चाहिए ।।४४३ ।। जब किन्हीं पुण्यवान् पुरुष की आयु कटे हुए केले की तरह एक साथ ही समाप्त होती हो, अर्थात्-शत्रु, विष व अग्निआदि द्वारा एकबार में ही नष्ट हो जाय तो वहाँ समाधिमरण की यह क्रमिक विधि नहीं है। बाकि देव (भाग्य) की प्रतिकूलता में ऋमिक विधान नहीं बन सकता ! अर्थात-भाग्य को प्रतिकूलता में होनेवाले कादलोधासमरण में यह विस्तृत सन्यास-विधि नहीं होती, किन्तु उस अवसर पर सर्वसन्यास ( समस्त चारों प्रकार के माहार का त्याग ) विधि होती है ।। ४४१ ।। जब समाधिमानेवाले मास र देश में कुल हों और साधु-समूह सन्यास विधि में प्रयत्नशील हो एवं समाधिमरण करनेवाले का मन ध्यान में अनुरक हो तो समाधिमरण करनेत्राले साधु को लोक में कुछ भी असाध्य नहीं है ।। ४४५ ।। सल्लेखनानत की अति करनेवाले निम्नप्रकार पाँच अतिचार हैजीने की इच्छा करना, मरण की इच्छा करना, मित्रों के साथ अनुराग प्रकट करना, पहले भोगे हुए भोगों का तथा पाह स्वामी समन्तभद्राचार्य:'आहारं परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विवर्षयेत् पानम् । स्निग्यं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत् कमणः 11१२७१। खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पञ्चनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत् सर्वयत्नेन ॥१२८।।' ---रलकरण्ड श्रा। १. ससानं । *. 'कदलीघानषदाय:' ग । 'कदलीघातबदायुषि' मु., क०, स्व०, प० । विमर्श-अयं पाठः समीचीनः । -सम्पादकः। २. उपयाति सति को विरति अग्नपानादिविरति कथं ? सफदेव एकहेलया, मुकृतिनां पुण्यवतां फदलौघातबदायुषियन्ना वरिविपान्याविन मरणमायाति तदा एवं वदति मम सर्वसन्यासः तत्र पुनः कदलीघालमरण पारः विस्तरसन्यासविधिन भवति । ३. यतो देवे प्रामविधिर्नास्ति । तथा चाह पं० आशावर:---गशापवर्तकवशाल कदलीधातवत् सकृत् । विरमरमानुषि प्रायमविचार समाचरेत् ॥११॥ -सागार० अ०८। ४. सावायें । *. ग किमपि । ५. यदि स्तोक का जोध्येत तरा भव्यमिति जीविताशंसा । यदि शीघ्न म्रियते सदा भव्यं किमयामि दुःखमनुभूयते, इति मरणाशंसा-याछा, मदि स आमाति तदाऽयं सन्यासः सफलः कथयति । यदि सुनेन नियत तदा भन्यमिति चिन्तयति। तथा पाह श्रीमदुमास्वामी आघाय:-'जीयितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि' ।। ३७ ॥ -मोक्षशास्त्र अध्याय ७ । तथा चाह श्रीपत्समन्तभद्राचार्य:'जीवितमरणाशंसे भय मित्रस्मृतिनिवामनामानः । सल्लेखनाविचाराः पञ्च जिनेन्द्रः समादिः ॥१२९ रत्नकरषद ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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