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________________ पञ्चम आश्वास: विज्ञानसुखदुःखादिगुणलिङ्गः पुमानयम् । धारणेरणदाहादिधर्माधारा वरादयः ॥ १२० ॥ प्रथमतम् - पित्तप्रकृतिर्धीमान्मेघावी कोषनोऽल्पकामस्व प्रस्वेद्यकापलितो भवति नरो नात्र सन्देहः ।। १२१ ॥ प्रवम् । वृद्धिहानी यवाग्नेः स्लामेबोरकर्षापकर्षतः पित्ताधिकोन भावास्यां बुजेः संप्राप्नुतस्तथा ।। १२२ ।। पुरुपासनमम्यासो विशेषः शास्त्रनिश्चये । इति दृष्टस्य हानिः स्यात्तथा तव वशं ॥ १२३ ॥ कुतश्चित्पित्तनाशेऽपि बुद्धेरतिशयेक्षणात् । कल: प्रभवभावोऽय स्याद्वीजा कुरयोरिव ॥ १२४॥ बुद्धि प्रति यदीष्येत पित्तस्य सहकारिता । का जो हानिर्भवत्येवं नालवृद्धो यथाम्भसः ॥ १२५॥ एवं च सतीवं न किंचित् । घ नेहात्मिका बेहकार्यां वेोहस्य च गुणो मतिः । मतत्रयमिहावित्य नास्यम्यासस्य संभवः ॥ १२६ ॥ 'बुद्धि देहात्मिका ( शरीर रूप ), देह का श्रय करने से बुद्धि की प्राप्ति के लिए शास्त्रों का इति नास्तिक मतनिरास: 1 १६५ दाह तथा जल पृथित्री आदि जड़ शैत्यगुण के आधार हैं । अर्थात् पृथिवो का गुण धारण, बाधु का ईरण व अग्नि का का शैत्यगुण है । - इस प्रकार यह जीव इसलिए भूतात्मक नहीं है, क्योंकि इसमें भूतों की अपेक्षा विरुद्ध गुणों ( ज्ञान, सुख व दुःखादि ) का संसर्ग है ॥१२०॥ यदि आपकी ऐसी निम्न प्रकार मान्यता है— निस्सन्देह पित्त प्रकृतिवाला मानव बुद्धिमान्, धारणाशक्तियुक्त, क्रोधी, अल्प मैथुन करने वाला पसीनायुक्त और असमय में सफेद बालोंवाला होता है' ।। १२१|| उक्त मत्त शोभन नहीं है, क्योंकि जैसे ईंधन की वृद्धि व हानि (न्यूनता - कमी) से अग्नि की वृद्धि व हानि होती है वैसे ही पित्त-वृद्धि से बुद्धि की वृद्धि व पित्त को न्यूनता से वृद्धि को हानि प्राप्त हो जायगी || १२२|| यदि आपके मत में सर्वथा पित्त प्रकृतिवाला पुरुष बुद्धिमान आदि होता है तब तो | बुद्धि को प्राप्ति के लिए ] गुरुजनों की उपासना, शास्त्रों का अभ्यास व शास्त्र-निश्चय संबंधी विशेषता इत्यादि प्रत्यक्ष प्रतीत हुई कारण सामग्री का अभाव हो जायगा । अर्थात् — फिर तो बुद्धि की प्राप्ति के लिए गुरुजनों की उपासना आदि निरर्थक सिद्ध होंगे || १२३|| [ आपकी उक्त मान्यता में विशेष आपत्ति ( दोष ) यह है ] कि किसी मानव में पिन का नाम हीनता) होने पर भी बुद्धि की अधिकता का दर्शन होता है, अतः इनमें (पित्त प्रकृति व बुद्धि में ) बोज व अङ्कुर सरीखा कार्यकारण भाव कैसे घटित हो सकता है ? अर्थात्पित्तप्रकृति बीज ( उपादान कारण है और बुद्धि अङकुर ( कार्य ) है, ऐसा कार्यकारणभाव नहीं घटित होता || १२४|| यदि आप बुद्धि के प्रति पित्त को सहकारी कारण मानते हैं तो हमारी कोई हानि नहीं है । अर्थात् - हम भी बुद्धि के प्रति पित्त को वैसा सहकारी कारण मानते है जैसे कमल-नाल की वृद्धि में जल सहकारी कारण होता है । अर्थात् कन्द सरीखा जोब है और नाल सरीखी बुद्धि है, उसमें पित्तरूपी जल सहकारी है | १२५ || जब उक्त बात सिद्ध हो चुको अर्थात् जब चेतनाशक्ति सम्पन्न आत्मद्रव्य पृथिवी आदि चार भूतों से भिन्न व अनादि अनन्त विविध प्रमाणों द्वारा सिद्ध किया गया तब आपको निम्न प्रकार की मान्यता युक्तिसंगत नहीं है " कार्य व देह का गुण है, ऐसी तीन मान्यताओं का अभ्यास आदि संघटित नहीं होंगे ||१२६|| केवल तत्त्वज्ञान चारित्र के बिना वेसा सांसारिक तृष्णा ( वाञ्छा ) की शान्ति का कारण नहीं होता जैसे जलादि का ज्ञान कर्तव्य पालन ( जलपान ) के बिना तृष्णा (पिपासा - प्यास) की शान्ति का कारण नहीं होता । अर्थात् जैसे किसी प्यासे मनुष्य को सरोवर का ज्ञान हुआ परन्तु यदि वह वहाँ जाकर जलपान नहीं करता तो उसे प्यास की शान्ति रूप सुख कैसे हो सकता है ? वैसे ही मुमुक्षु मानव का केवल तत्त्वज्ञान भो सदाचाररूप कर्त्तव्य पालन के बिना उसकी सांसारिक तृष्णा की शान्तिरूप सुख प्राप्त नहीं कर सकता ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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