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________________ १६४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये जलान्मुक्तानलकाष्ठाच्चन्द्रकान्तास्पयःप्रसवः । भवन्यजनतो वायुस्तस्वातल्यां बिहापयेत् ।।११६।। जलावि तिरोताऽपरादेस्तबुडवे । घराविषु सिरोभूतास्चित्तासितमपीध्यताम् ॥११॥ पुति तिति तिष्ठन्ति शरीरेन्द्रियधातवः' । पान्ति याऽभ्यतासां सस्वे सत्त्वं प्रसस्पताम् ।।११८।। विवस गणसंसर्गावात्मा भूतात्मको न हि । भूजलानलवासानामन्यषा न भयवस्थितिः ||११|| तीन मान्यताओं का आश्रय लेकर शरीराकार परिणमन को प्राप्त हुए पृथिवी, जल, अग्नि व वायु इन चार भूतों से यह बुद्धि या जीव प्रकट हुआ है अथवा उत्पन्न हुआ है, ऐसा मानोगे तो शरीराकार परिणत पृथिवीआदि भूतों की तरह जीव भी प्रकट रूप से दृष्टिगोचर होना चाहिए परन्तु वह दृष्टिगोचर नहीं होता, अतः वह पुषक् चैतन्य द्रव्य है ।।११५।। यदि आप कहेंगे कि कार्यकारण विजातीय भी होता है जैसे जल से मोती पृथिवीरूप) उत्पन्न होता है और काष्ठ से अग्नि पैदा होती है एवं चन्द्रकान्तमणि से जलप्रवाह प्रकट होता है तथा पंखें हो वायु उत्पन्न होती है, ऐसा मानने से तो आपकी पृथिवी, जल, अग्नि व वायु इन चार तत्वों की संख्या विघटित हो जायगी । अर्थात्-जल से उत्पन्न हुआ पार्थिव मोती जलात्मक हो जायगा, जिसमे पृथिवी तत्व का अभाव हुआ और काष्ट से उत्पन्न हुई अग्नि काष्ठरूप हो जायगी, इससे अग्नि तत्व का अभाव हुआ और चन्द्रकान्तमणि से उत्पन्न हुए सलाह चनाकात मामा-पिता हो गया, जल तत्त्व का अभाव हो गया। इसी प्रकार पंखे से उत्पन्न हुई वायु पंखेरूप हई तन्न वायु तत्त्व का अभाव हुआ । अर्थात्-ऐसा मानने से (बुद्धि देहात्मक है व देह का कार्य है, आदि के कारण शरीरात्मक है } तो आपके उक्त प्रकार से पृथिवी, जल, अग्नि व वायु ये चारों भूत पदार्थ विघटित हो जाते हैं ॥११६।। यदि आप कहेंगे कि उक्त मोती-आदि के दृष्टान्त इस प्रकार संघटित होते हैं कि जल-आदि में तिरोहित ( अप्रकट रूप से स्थित ) पृथिवी-आदि से मौतो-आदि उत्पन्न होते हैं। अर्थात्-जल में तिरोहित (अप्रकट रूप से स्थित ) पृथिवी से मोती हुआ और काष्ठ में तिरोहित हुई अग्नि से अग्नि उत्पन्न हुई एवं चन्द्रकान्तमणि में तिरोहित जल से जल पैदा हुआ तथा पंखे में तिरोहित वायु से वायु उत्पन्न हुई तब हमारे पृथिवी-आदि चारों तत्त्वों को संख्या कैसे विघटित होगी? सब हम कहते हैं कि पृथिवी-आदि में तिरोहित हुए (स्वतंत्र रूप से पृथक् चैतन्य की सत्ता लिए हुए) जीव से जीव को अभिव्यक्ति मान लो ।।११७।। जीव के जोवित रहते शरीर, इन्द्रिय व बुद्धियां स्थिर रहती हैं और जीव के चले जाने पर नष्ट हो जाती है, अत: चैतन्य रूप जीव स्वतंत्र पदार्थ है। यदि ऐसा नहीं मानोगे तो मृत शरीर में इन शरीर व इन्द्रिय-आदि की सत्ता में जीव की सत्ता का प्रसङ्ग होगा। अर्थात्-~-आत्मा चेतन है और पृथिवी-आदि भूत अचेतन हैं । पृथिवी-आदि भूतों में चेतन की सत्ता नहीं है उस अपेक्षा से भूतों को अचेतन समझना चाहिए ।।११।। निश्चय से जीव भूतात्मक (पृथिवी-आदि रूप-जड़ ) नहीं है, क्योंकि इसमें अचेतन ( जड़ ) पृथिवी-आदि भूतों की अपेक्षा विरुद्ध गुण (चैतन्य-बुद्धि) का संसर्ग पाया जाता है। अन्यथा-यदि भूतात्मक मानोगे तो पृथिवी, जल, अग्नि व वायु इन चार तत्त्वों की सिद्धि नहीं होगो, अर्थात् आत्मा के नष्ट हो जाने पर भूत भी नष्ट हो जायगे परन्तु सत का नाश नहीं होता । अथवा-अन्यथा-विरुद्ध गुण ( चेतन गुण ) के संसर्ग होने पर भी जीव को भूतात्मक ( जड़ ) मानोगे तो आपके पृथिवी-आदि चारों तत्त्वों की सिद्धि नहीं होगी, क्योंकि ये (पथिवी-आदि ) भो भिन्न-भिन्न धारण, ईरण व दाहादि गुणों के कारण पृथक-पृथक स्वतंत्र सत्ता-युक्त है ।।११९।। क्योंकि यह जीव विज्ञान, सुख व दुःखादि गुणों से पहचाना जाता है, अर्थात्इसकी स्वतंत्र सिद्धि में उक्त गुण प्रतीक हैं जब कि पृथिवी, वायु, अग्नि व जल क्रमशः धारण, ईरण, दाह १. 'बुख्यः' इति ह. लि. (ग ) प्रत्तो पाठः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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