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________________ १०२ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये निरवरिमाड र भूरा वाणिसंगमय, तापस इव विहितवल्कप्तपरिणतः कृतजटाबन्धश्च, समुद्र इय महासत्वसंश्रयः प्रचारापाटलितफटनिश्च, सत्पुरुष इव प्रियालोकनः पराधंघटनानिानाच, ___ यश्चानधरतमखिलबनोपसेव्यमानसर्वस्यः पवनवशविकाापरेण पल्लवापरणोपहसतीव प्रतिवेशितानस्मिन्दु संचारे कान्तारे वैयाववाप्यमानसमागमनस्याधिभनस्माविधाय कमप्युपकारमरे पदिर, कि सबान्तःसारतया। सरल, वृषवं सरलत्वम् । संपाक, मुधेयं राजवक्षता । शाल्मले, निष्कारण कण्टाकितं वपुः । अर्जुन, प्रात्मक्षेवाम फलभारपरिग्रहः । तृणराज, निजफखविभवगोपनाप नितान्त वृद्धिः। पूतीक, अपिजनाशाभङ्गाय मार्गावस्थितिः, कि च। पान्यः गल्लवलण्टनं कटिभिः स्कन्धस्य संघदन संबायो हरिभिः शकुन्तनिकरः क्षोवस्तु कि यष्यते । कि चान्यत्तम देवदेहसशस्त्रलोक्यमान्यस्थिते रात्मीया इब पस्य पाचकजनः स्वच्छन्दसेय्याः श्रियः ।।१०॥ शयन (नागशय्या पर दायन करनेवाले ) होते हैं। जो वैसा वयःपरिणत (पक्षियों से चारों ओर नम्रोभूत ) और शुचि-छद-परिच्छद ( पवित्र पत्तों से वेष्टित या आच्छादित ) है जैसे श्री ब्रह्मा वयःपरिणत ( वृद्ध ) व शुचिच्छद-परिच्छद ( हंस-बाहनवाला) होता है । जो वैसा मयूर-आसन । जिसपर मोरों की श्रेणी वर्तमान है ) व सुरवाहिनीसंगम ( देव-सेना के संगमवाला) है जैसे कार्तिकेय मयूगसन ( मयूर वाहन वाला) घ सुरवाहिनीरांगम । गङ्गा नदी का संगम करनेवाला) होता है । जो वैसा विहितबल्कलपरिग्रह ( वृक्ष की छाल को धारण करनेवाला ) ब कृतजटायुबन्ध (शाखाओं का बन्धन करनेवाला) है जैसे तपस्वी विहितवल्कलपरिग्रह ( वृक्ष की छाल का धारक ) और कृतजटायुबन्ध ( मोरपंखों को पीछी का धारक ) होता है। जो वैसा महासत्वसंश्रय ( विमोष बल का आश्रय ) व प्रवालपादलितकटनि ( जिसने तट को छोटी छोटी कोपलों से पादलित किया है। है जैसे समुद्र महासत्वसंथय ( मकर-आदि जलजन्तुओं का आश्रय ) व प्रवालपाटलितकानि ( जिसने तट को मूंगारत्नों में पाटलिप्त रक्तवर्णशाली-किया है। होता है । एवं जो वैसा प्रियालोकन (प्रिय दर्शनवाला) व परार्थ घटनानिन ( दूसरे लोगों व पक्षियों के प्रयोजन की घटना में सत्पर) है जैसे सत्पुरुष प्रिया-अलोकन ( परस्त्रियों को ग देखनेवाला ) व परार्थघटनानिध्न ( परोपकार करने में तत्पर ) होता है। जो वृक्ष, जिसको पुष्प व फलादि सर्व विभूति समस्त प्राणियों द्वारा निरन्तर जीविका-योग्य की जा रही है। जो वायु से विकसित हुए फ्ल्व रूपो ओष्ठों से निकटवर्ती वृक्षों का निम्नप्रकार उपहास हो कर 'अरे! कत्थे के वृक्ष ] याचक मानव का, जिसका समागमन इस दुःख से भी संचार करने के लिए अशक्य वन में दैवयोग में प्राप्त किया जारहा है, जब तूने कुछ भी उपकार नहीं किया तब तेरी अन्तःसारता से क्या लाभ है ? हे देवदारु ! जब तू कुछ भी उपकार नहीं करता ती तरी सरलता वृथा है। हे संपाक ( वृक्ष-विशेष ) ] अनुपकारी तेरी मह राजवृक्षता निरर्थक है। हे सेमर वृक्ष ! अनुपकारी तेरा यह शरीर निकारण माटों से व्याप्त है। हे अर्जुन ! अनुपकारी तेरा यह फलों का बोझारूपी परिग्रह स्वयं के खेद के लिए है; क्योंकि तेरे का अखाद्य हैं। हे ताड़ वृक्ष ! अनुपकारो तेरी अतिशय ऊंचाई अपनी फल संपत्ति को रक्षा के लिए है। बरे करआवृक्ष ! उपकार न करते हुए तेरी मार्ग पर स्थिति याचकों को आशा को भङ्ग करने वाली है। पान्यों ( वटोहियों ) से पल्लवों का चुण्टन किया जाता है व हाथो तेरा तना रगड़ते हैं और बन्दर तुझे पीड़ित करते हैं एवं पक्षो-समह से तेरे खोदने के विषय में क्या कहा जावे ? विशेष यह है कि देवता
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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