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________________ २२८ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये समायाते' मुहरुत्पयप्रयमानमामयो'माधमन्थरसपस्तसत्त्वस्थान्ते सद्यःप्रसूतसहकाराकुरकवलापायकाठकोकिलकामिनीकुहारावासरालितमनोजविजो मलयालमेशलानितीनकिन्नरमिनमोह मामोदमेषुरपरिसरम्समीरसमुक्ये विकसकोश"कुरयक प्रसवपरिमलपानसुम्भमधुकरोनिकरमडारसारपसरे बसम्ससमयावसरे सा प्रसरत्स्मरविकारा स्मरस्खलामतिगतिरनन्तमतिः सह सहरोसमूहेन मवनोत्सवविवसे योलान्दोलमसालसमानसा स्वकीयरूपातिशयसंपत्तिरकारखवावगाजविलास पीयित कामचार प्रचारचेतसा पूर्वापसक पारपालि बोसम्बरीसनामोत्सप पक्षधरस्य विजयावनीवरस्य विद्याधरीविनोकपादपोत्पावक्षोण्या बक्षिणनेण्या किन्नरगीलनामनगरनरेनेण कुण्डलमण्डितनाम्ना घरचरेण निमाविता २ शृङ्गारसारममृतयुतिभिन्युकान्तिमिन्हीवरधुतिमनङ्गशरांचच सर्वान् । प्राचाय नूनमियमात्मभुवा प्रयत्मात्सृष्टा जास्त्रयवशीकरणाय बाला ॥१६७॥ और प्रीति-जनक था। जब वह वचन बोलने का आरम्भ करती थी तो उसको ओष्ठपल्लवों में कुछ कम्पन के बहाने से विशेष मनोज्ञता पाई जाती थी। उसके नेत्रों के कटाक्षों के संचार कामदेव के नवीन अस्त्रों के संचालन में चतुर थे। उसका नितम्बभाग, मध्यभाग (कमर ) को गुरुता को लेकर हो मानों-वृद्धिंगत हो गया था और इसीलिए मानों-उसका मध्यभाग ( कमर ) कृश हो गया था ॥ १६६ ॥ जब ऐसा वसन्त ऋतु का अवसर आया, जिसमें समस्त प्राणियों के मन बारम्बार उन्मार्ग में बढ़ी हुई कामदेव की पीड़ा से चंचल हो रहे थे। जिसमें नवोन उत्पन्न हई आम्र-मञ्जरियों के भक्षण से कपायल कष्ठवाली कोकिलाओं के मधुर कूजन से कामदेव की विजय प्रसारित की गई है। जिसमें ऐसी उन्नतिशील बायु का संचार होरहा है, जो कि मलयाचल के तट में प्रविष्ट हुए किन्नर देव-देवियों के जोड़ों को सुरत-क्रीडा से उत्पन्न हुई सुगन्धि से परिपूर्ण है और जिममें ऐसी भोरियों के समूह की झङ्कार ध्वनि का उत्तम प्रसरण हो रहा है, जो कि विकसित कलियोंवाले कुर वक-पुष्पों को सुगन्धि के रसपान में लुब्ध ( लम्पट ) हैं । तब ऐसी अनन्तमति एक बार मदनोत्सव के दिन सखियों के समूह के साथ झूला झूलने के लिए उत्कण्ठित मनवाली होकर उपबन ( बगीचा ) में गई, जिसमें कामदेव का विकार उत्पन्न हो रहा है और जिसको बुद्धि को गति कामदेव से स्खलित हुई है एवं जिसने अपनी विशेष लावण्य सम्पत्ति से समस्त लोक को स्त्रियों के शारीरिक अङ्ग-बिलास को तिरस्कृत किया है। उसी अवसर पर उसे ऐसे कुण्डल मण्डित नाम के विद्याधर ने देखा और उसे चाहने लगा, जिसने यथेष्ट संचार में चित्त लगाया था और जो सुकेशी नाम की पत्नी के साथ आया था एवं जो।पूर्व-पश्चिम समुद्रकी वीची ( तरङ्ग) रूपी कमनीय कामिनीवाली तटी के धारक विजया पर्वत की विद्यारियों के विनोदरूपी वृक्ष की उत्पत्ति भूमिवाली दक्षिण श्रेणी में स्थित हए 'किन्नरगीत' नाम के नगर का स्वामी था। इसके पश्चात् वह इसके रूप लावण्प से मोहित होकर निम्न प्रकार विचार करने लगा 'ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-ब्रह्मा ने तीन लोक को वश में करने के लिए शृङ्गार का सार, अमृत को तरलता, चन्द्र को कान्ति, नोल कमल की शोभा और कामदेव के समस्त वाम ग्रहण करके ही इस वाला की सृष्टि ( रचना ) स्वयं विशेष प्रयत्न से की है' 1 १६७ ॥ १. बसन्ते । २. पीड़न । ३. ३त्पन्न 1 ४, सुरतं । ५. मध्य । ६. मोगरसदृश-रक्तसुगन्धपुष्पविशेषः । ७, सखो । ८. कृतस्वच्छाचारगमनचित्तेन । ९. समुद्रः। १०-११. वीची। वेला एष स्त्री-सहिततटी। १२. दृष्टा । १३. ब्रह्मणा।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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