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________________ षष्ठ आश्वासः २२७ प्रशानाञ्चलनामस्मलितनिलिम्पविमानवलयं सहस्रकूट वैल्यालय पियासुः स्वकीयस्तावपस्या मनङ्गमतीमेवमन्छन्'बस्से, अभिनवविवाहभूषणसुभगहस्ते, फ्षास्ते ममुल्लिक्षितलाञ्छनेन्चुमुन्वरमुखो प्रियसली तबातीय कैलिशीसप्रकृतिरजतमतिः ।' अनङ्गामतिः-'सात.' वणिम्वन्धारकदार कोद्गीयमानमङ्गला कृति" मपुत्रकवरमानात्मपरिणयनावरणपरिणामपेशला परास्थितशुकसारिकावदनवाद्यसुन्दरे वा'सावासपरिसरे समास्ते'! 'समारपतामित्तः । 'यमादिशति तारः' । प्रियदत्तभेष्टो वृद्धभावाप्परिहासालापनपरमेष्ठी समागतां सुसामवलोक्य 'पुत्रि, निसर्गविलास. रसोत्तरङ्गा पाशापहसितामृतसर पिविषये सर्वव पत्र्यालि फाफे "लिकिलाहर' 'ये सं! प्रत्येच तव मन्मयपपाः परिणयनमनोरथाः । तद्गृह्यतो तावत्समस्तवतस्वयंपर्य ब्रह्मचर्यम् । अवेष ते साक्षी भगवानशेषश्रुतप्रकाशना शापरिधर्म कीतिमूरिः । अनन्त भतिः-'तात, नितान्तं गृहीतवती । अस्मिन्न केवलमत्र में भगवानेष सरक्षो कि तु भवानम्बा । अन्पदा तु उडिन्ने सनकुड़मले स्फुटरसे हासे पिलासालसे किंचित्कम्पित तवापरभरप्राये ययःप्रक्रमे । कावाभिनयास्त्रवृत्तिचतुरे मेत्राधित विभ्रमे प्रावायेव च मध्य "गौरवगुणं बद्ध नितम्बे सति ॥१६६।। के लिए शोध ऐसे 'सहस्रकूट' वैशाला के प्रति गपन कलेला नमक दृया, जिसने गगनतल को स्पर्श करनेवाले शिखरों के अग्रभाग पर संयोजित ध्वजाओं के विस्तृत वस्त्र के प्रान्तमागों के समूह से देवताओं को विमानश्रेणी स्खलित ( रोकी हुई) की है, अता उसने अपनी पुत्री को सखी अनङ्गमति से पूछा-'नवीन विवाह के आभूषणों से सुन्दर हापौवालो पुत्रो ! लाञ्छन-रहित चन्द्रसरो खे मुखवालो तुम्हारी विशेष प्यारी सखो और क्रीड़ाशील स्वभाववालो पुत्रो 'अनन्तमति' कहाँ है ?, अनङ्गमती-'पिताजी ! जिसका मङ्गल श्रेष्ठ वैश्यों की कन्याजनों द्वारा गान किया गया है और जो गुडेरूष दर के विवाह के बहाने से अपने विवाह करने के अभिप्राय से मनोज्ञ है, ऐमी वह अनन्तमति पिजरे में बैठी हुई तोता-मेना के मुखरूपी बाजे से मनोश निवासगृह के प्राङ्गण में बैठी हुई है ।' 'उसे यहां लाओ।' 'पिताजी जैसी आज्ञा देते हैं।' प्रियदत्त सेठ ने, जो कि वृद्ध हो जाने से परिहास-युक्त बार्तालाप करने में विशेष निपुण था, समीप में आई हुई कन्या को देखकर कहा-'पुत्री ! सदेव गुड्डी से खेलने के लिए पटुतावाले और स्वाभाविक विलासरस में उच्छलन करनेवाले नेत्रप्रान्तों से अमृत को छोटी नदी को तिरस्कृत करनेवाले तेरे हृदय में अभी से कामदेव के मार्गरूप विवाह के मनोरथ उत्पन्न हो चुके हैं, बतः समस्त व्रतों में श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करो। पुत्री! इस विषय में समस्त आगम के प्रकाशन के अभिप्रायरूपी सुवर्णवाले से भगवान् धर्म कोति सूरि तुम्हारे साक्षी है।' अनन्तमति--पिताजी! मैंने सर्वथा ब्रह्मचर्य ब्रत ग्रहण कर लिया और इसमें केवल आचार्य ही साक्षी नहीं हैं किन्तु आप और माता जी भी साक्षी हैं।' ___ अनन्तमति की युवावस्था-उसकी कुचकलियाँ विकसित हो गई । उसका हास्य, विलास से सुन्दर १. मरहीं। २. निर्बाञ्छनचन्द्रवत् । ३. हे मुख्य । ४. कन्यागनः । ५. दोगला। ६. निवासगृहमाङ्गण । ७. नेत्रप्रान्ते । ८. कुल्या । ९. पुत्तलिकाः । १८, क्रीडायां । ११. पटुहृदये, पुतलि काक्री ढायां पटुहन्ये । १२. इदानीमपि । १३. श्राशय एव सुवर्ण विद्यते यस्य सः। भूरि प्राज्ये सुवर्थ चलि विश्वः । १४. कम्पितभिषेण । १५ गौरवगुणं नितम्बन गृहीतं तन मध्यं सामं जातं ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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