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________________ २२६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पासकाध्ययने निःशङ्कितत्त्वप्रकाशनो नाम सप्तमः कल्पः । स्यां' देवः स्यामहं यक्षः स्यां वा अनुमतीपतिः । यदि सम्यक्त्वमाहात्म्य मस्तीतीच्या परित्यजेत् ॥। १६१ ।। उषितेष माणिषयं सम्यक्त्वं भवनंः सुझेः । विक्रीणानः पुमान्स्वस्य पञ्चकः केवलं भवेत् || १६२ ॥ चिते चिन्तामणिस्य यस्य हस्ते सुरनुमः । कामधेनुर्धनं यस्य तस्य कः प्रार्थनाक्रमः || १६३ ।। चिते स्थानके यस्य चित्तवृत्तिरनाकुला । तं श्रियः स्वयमायान्ति स्रोतस्विन्य इवाम्बुधिम् ॥ १६४ ।। तत्कु "वृष्टयन्सरोद्भूतामिमामुत्र च संभवाम् । सम्यग्वनशुद्ध घमाकाङ्क्षा त्रिविधा स्वजेत् ।। १६५ ।। श्रूयतामत्रोपाख्यानम् - अङ्ग मण्डलेषु समस्तसपरनसम रमारम्भनिष्प्रकम्पाय चम्पायां पुरि लक्ष्मीमतिमहादेवीदयितस्य विधानवाद बहुपादनित्य दोपहर कल प्रियदत्तश्रेष्ठी संपन्या गृहलक्ष्मीपन्या सफलत्रणगुणधाम्नाङ्गवतोनाम्ना सहाला व प्रात उष्टाी क्रियाकाण्डकरणाया अंकष कूटकोटिघटितपताकापडबुद्धिवाला हो गया था तब उसने अदृश्य होने का अञ्जन बनाना सीखा। जब वह विद्या-सिद्धि में निःशङ्क हुआ तब उसने आकाशगामिनी विद्या प्राप्त की ओर मुक्त हो गया । १६० ।। इस प्रकार उपासकाध्ययनमें निःशङ्कित तत्वको प्रकट करनेवाला सातवां कल्प समाप्त हुआ । अब निःकांक्षित अङ्ग का स्वरूप कहते हैं--- यदि सम्यग्दर्शन में प्रभाव है तो 'में देव हो जाऊँ' 'अथवा यक्ष हो जाऊँ' अथवा 'राजा जाऊँ' ऐसी इच्छा का त्याग करना चाहिए। जैसे छाँछ लेकर माणिक्य को बेचनेवाला मानव केवल अपनी आत्मा को उगनेवाला होता है वैसे हो क्षणिक सांसारिक सुखों के बदले में अपने सम्यक्त्व को बेचनेवाला मानव मी केवल अपनी आत्मा को ठगनेवाला है ।। १६१- १६२ ।। जिस धार्मिक सम्यग्दृष्टि के मन में चिन्तामणि है, हस्त में कल्पवृक्ष है और धन में कामधेनु है, उसे याचना से क्या प्रयोजन ? अर्थात् सम्यक्त्व चिन्तामणि, कल्पवृक्ष और कामधेनु सरीखा है, अतः सम्यग्दृष्टि को विना याचना किये सब मिलता है, ऐसा जानकर इच्छाएँ छोड़ देनी चाहिए || १३ || जिसको मनोवृत्ति धर्मलक्षणवाले योग्य स्थान को प्राप्त करके अनाकुल ( सांसारिक सुखों से निःस्पृह ) हो जाती है उसे सम्पत्तियाँ देसी स्वयं प्राप्त होती हैं जैसे नदियाँ समुद्र में स्वयं प्राप्त होती है ।। १६४ || अतः सम्यक्त्व को विशुद्धि के लिए मिथ्यात्व कर्म के उदय से होनेवाली इस लोक व परलोक संबंधी तीन प्रकार की इच्छाएँ ( देवता, यक्ष व राजा होने की अभिलाषाएं ) छोड़ देनी चाहिए ।। १६५ ।। २. नि:कांक्षित अ में प्रसिद्ध अनन्तमति की कथा { अब इस विषय में एक कथा है, उसे श्रवण कीजिए - 1 अङ्गदेश में, समस्त शत्रुओं के साथ होनेवाले युद्ध के प्रारम्भ में कम्पन -रहित ( निर्भीक ) 'चम्पा नाम की नगरी है । उसमें 'बसुवर्धन' नाम का राजा राज्य करता था । उसकी 'लक्ष्मीमति' नामकी पट्टरानी' थी । उसके यहाँ समस्त वणिकों में श्रेष्ठ 'प्रियदत्त' नामका श्रेष्टी या । उसकी गृहलक्ष्मी-सी व समस्त स्त्रियों के गुणों की स्थान 'अङ्गवती' नाम की पत्नी थी । एकवार प्रातः काल में प्रियदत्त सेट अपनी धर्मपत्नी के साथ अष्टाह्निका पर्व का क्रियाकाण्ड करने १. अन्हें भवामि । २. तक्रेण । ३. धर्मलक्षणे । ४. मिथ्यादर्शनावरणङ्कर्ता । ५. देव-यक्ष राजीव ६. समग्रवणिज मध्ये श्रेष्ठः । ७. शीघ्र सपदि । ८. संयोजित ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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