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________________ बाई आश्वासः २२५ सम्पग्विदितवद्यः संप्रत्याशिवागारोऽऽजनचौरः स्वप्नेऽप्यपरवञ्चनाचारनिवृत्तचित्तो जिनवसः। स स्वस्ल महतामपि महान्प्रतिपन्नदेशातिवातमन्त्री जन्तुमात्रस्पाप्मन्पया म बिन्तयसि, कि पुनरिधराय समावरिसोपचारस्प तन नवनिविशेषपोषितस्यास्य धरसेनस्यान्यथा चिन्तयेत' इति निश्चित्य निविश्य च सौत्सुक्यं सिक्ये निःशशेमुपोक: स्वकीयसाहसव्यवसायसंतोषितसुरासुरानीकः सवेवर तच्छरप्रसर चिरछेव, *आससाद च खेमरपरम् । पुनपत्र जिनवत्तस्तत्र मे गमनं भूयाविति बिहिनाशासनः काञ्चनाचलमेखलानिलयिनि सोमनप्सक्नोयिनि जिनसनि जिनदत्तस्य धर्मश्रवणकृतो गुरुदेवभगवतः समोपे तपो गहोत्वावगाहितसमस्ततिशतश्यो हिमवच्छलचूलिकोमोलित केवलज्ञानः कैलास सरकान्तारगतो मुक्तिश्रीसमागमसलिभोगा'यतनो मभुव । भवति चात्र श्लोकः भत्त्रपुत्रोऽक्षविक्षिप्तः शिक्षितादृश्यकम्मलः । अन्तरिक्षति प्राप निःशवोऽजनतस्करः ॥१६०|| ऐसा करने से अन्त में आकाश-गामिनी विद्या सिद्ध होगी।' ___ अजनचार-'यदि ऐसा है तो हटो हटो, क्योंकि तुम छोंके के नीचे पृथिवी तल पर कपर अग्रभाग करके गाडे हर तीक्ष्ण शस्त्रों पर गिर जाने को भयभीत बुद्धि वाले हो गये हो, इसलिए तुम इसे सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकते। क्योंकि तुम तो अपना जनेऊ दिजाने मात्र से धनार्जन करने में कृतार्थ हो । अतः मुझे यथार्थ उपाय से मनोज्ञ विद्या को कहो । मैं इसे साधता हूँ।' यह सुनकर आत्मकल्याण को अप्रिय समझने वाले उसे धरसेन ने अञ्जनचोर के लिए अच्छी तरह विद्या समर्पित कर दो। - इसके बाद जानने योग्य बातों के ज्ञाता व मोक्ष-स्थान के निकटवर्ती ( उसो भव से मोक्ष जाने वाले ) अजनचोर ने निश्चय किया-"जिनदत्त सेठ, जिसकी चित्तवृत्ति स्वप्न में भी दूसरों को धोखा देने के व्यवहार से दूर है, निश्चय से महापुरुषों में श्रेष्ठ है और जो स्वीकार किये हुए श्रावक-व्रतों के अधीन है जब प्राणीमात्र का भी अहित चिन्तवन नहीं करता तब क्या उस घरसेन के विषय में, जिसने इसको चिरकाल तक विशेष सेवा की है और जो इसके द्वारा पुत्र-सरीखा लालन-पालन किया गया है, अहित चिन्तबन कर सकता है ?, इसके पश्चात् बड़ी उत्कण्टा के साथ उस छोंके पर बैठ गया और निःशङ्क बुद्धि वाला होकर अपने साहस व उद्योग द्वारा सुर व असुरों के समूह को सन्तुष्ट करने वाले जस अजनचोर ने एकबार में हो समस्त छींके के धागे काट दिये और विद्या धर-पद प्राप्त कर लिया। पुनः इसने इच्छा को "कि जहाँ जिनदत्त है, वहाँ पर मेरा गमन हो' ऐसी इच्छा करने वाला वह मुमेरु पर्वत की मेखला पर स्थित च सौमनसवन में वर्तमान जिनालय में स्थित होकर आचार्य गुरुदेव से धर्म श्रवण करने वाले जिनदत्त के पास पहुंच गया और प्रस्तुत आचार्य के समीप जिन दीक्षा ग्रहण करके समस्त द्वादशाङ्ग शास्त्रों के तत्वों का ज्ञाता ( श्रुतकेवली) हो गया। पुनः उसे हिमवन पर्वत की चूलिका पर केवलज्ञान प्रकट हो गया। जब वह कैलाश पर्वत के वकुल वृक्ष के वन में प्राप्त हुआ तब वह मुक्तिश्री के साथ समागम करने में आसक आत्मावाला हुआ। प्रस्तुत विषय में एक श्लोक है, उसका अर्थ यह है अजनचोर, जो कि क्षत्रिय राजकुमार था, और जो जुआ खेलना-आदि व्यसनों के कारण विक्षिप्त १. अजन: 1 २. शेभुपी मतिः । ३. एकवार। * प्राप्तवान् । ४. “विहिताशंसन'का । ५. प्रकटीकृत । ६. वकुलः । ७, आत्मा । ८. धूतैन ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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