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________________ २२४ यशस्तिलक चम्पूकाव्ये च तन्महीश्वरगृहं गृहीततबलंकारस्तप्रभाप्रसरसमुल्लक्ष्यमाणचरणसंचारः शम्ब' शास्त्रीत्तालाननकरस्तल बरानुचररभिषक्तो निस्तरीतुमशक्तः परित्यय तगभरणमितस्ततो नगरबाहिरिकायां विहरमाणस्तं धरसेनं प्रदीप्त दीपदोप्तिक. शादषसावस्त्र निवेशभमाशान्मुसहरारोहावरोहायवेधीनमवलोक्य समुपछीषय वसं बेगमेव निविवेश-'अहो प्रलपकालान्धकाराविलायामस्थां वेलामा महासाहसिक चन् दुष्करकमकारिन्, को नाम भगवान् धरसेन:-'कल्याणबन्यो, महाभागवलस्य जिनदत्तस्य विसिपुष्पबदनियोगसंबन्धोऽहमेतबुपदेशावाकाविहारष्यवहारनिषा विद्या सिसायिपुरजापासिषम् । अञ्जनचोर:-कमियं साध्यते ? घरसेना-कथयामि, 'पूजोपचारनिक्ये शिक्येऽस्मिनिःशमुपविश्य विद्यामिमामकुण्ठकण्ठं पठन्कक शरप्रकं स्वच्छषीश्छिन्द्याववसाने गारगमनेन युज्यते ।' 'पद्येवमपसरापसर । 'रवं ह त सोन्मुख निलातनिशितशास्त्रसंपातभोतमतिर्न खलु भवसि एतत्साधने । एतधनोपयोतकर्शनेनार्थावर्जनकृतार्थः समर्थः । ताकघय मे यथार्थवादयो विद्याम् । एना साश्यामि । ततस्तेनात्महित कटुना पुष्पवटुना साधुसमर्पितवित्रः 'राजगृह नगर के राजा की 'ताविपरी' नाम की पट्टरानी का 'सौभाग्यरत्नाकर' नाम का कण्ठ-आभूषण यदि इसी समय लाकर मुझे दोगे तब तो तुम मेरे पति हो अन्यथा शत्रु हो ।' वेश्या की बात सुनकर अञ्जनचोर ने कहा--'यह क्या कठिन है ?' इतना उदारतापूर्वक कहकर वह अपनी प्रियतमा का मनोरथ साथंक ( पूर्ण ) धारने का इच्छुक हुआ। अपने दोनों नेत्रों में ऐसा अञ्जन, जिसके आंजने से उसके शरीर की छाया तक किसी से देखी न जासके, आंजकर राजमहल में घुसकर उसने उक्त राजमहिषी ( पट्टरानी ) का कण्ठाभरण चुरा लिया । यद्यपि अदृश्य अञ्जन के कारण उसे कोई नहीं देख सका परन्तु उस हार की रलकान्ति के बिस्तार से उसका पादसंचार [ कोट्टपाल-आदि नगर रक्षकों द्वारा ] मालूम पड़ा तब शब्द ( गाली-गिलोंज ) बोलने से उग्न मुखवाले और शस्त्र उठाने से ऊपर उठाये हुए हस्तबाले कोट्टपाल के सेवकों ने उसका पीछा किया। परन्तु उनको धोखा देकर निकल भागने में अपने को असमर्थ देखकर उसने उस आभूषण को वहीं पर छोड़ दिया। इसके पश्चात् नगर की बाह्य भूमि पर इधर उधर भागते हुए उसने [ आकाशगामिनी विद्या सिद्ध करनेवाले ] ऐसे 'धरसेन' को देखा, जिसका शरीर उजाले हुए दीपकों को कान्ति से नीचे गाढ़े हुए अस्त्रशस्त्रों पर गिर जाने के भय के प्रवेश से बार-बार छीके पर चढ़ने-उतरने से दीन था, और उस स्थान पर आकर कहा __ 'अहो ! प्रलयकाल-सरोखे गाढान्धकार से मलिन इस रात्रि-वेला में महासाहसी पुरुषों में प्रमुख और दुःख से भी करने के लिए अशक्य कर्म करनेवाले पूज्य आप कौन हैं? धरसेन-'मेरे हितेषी वन्धु ! भाग्यशाली चरित्रवाले जिनदत्त के साथ पूजा के अवसर पर पुष्प लानेवाले पुत्र के सरीखी प्रसिद्ध आज्ञा पालन का संबंध रखनेवाला में उसके उपदेश से आकाश-विहार के व्यवहार में प्रवृत्तिवाली ( आकाशगामिनी ) विद्यासिद्ध करने का इच्छुक होकर यहाँ आया हूँ।' अञ्जनचोर-'यह कैसे साधी जाती है ? घरसेन–'कहता हूं-'पूजोपचार के क्षेपण-योग्य इस छोंके में निःशङ्क (शङ्का-रहित । वैठकर' अदिराम काण्ठ से इस विद्या को पढ़ते हुए निर्मल बुद्धि वाले होकर छोंके को एक-एक डोर काटनी चाहिए, १, शब्देन उत्तालं मुखं, शस्त्रेण उत्ताल: कसे येषां । २. तलारः । ३. 'प्रदीप्रः खः । ४. प्रधान । ५. ऊध्वमुलाग्नटित ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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