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________________ षष्ठ आश्वास २२३ इश्व संगमित सकलोपकरणसेनो परसेनोऽप्सु छच्छाया बन्ध्ये पविवसवासते यीमध्ये सर्वतो पाषान arrafonig suज्ञानमेदिनीषु प्रवर्तित तदाराधनानुकूखमण्डलो त्पक्षासु विक्षु निभिप्तरक्षाबलोऽवगण : कूतसकलोकरणी भाग यीविधानसमये बटविटपाये पतिब' फरकर्तितसूत्र सरसह संपादित मात्मासन्न समानरन्तरालोचितमन्तर्जस्वसंकल्पित मन्त्रवाक्य: सिक्यं निबध्य प्रबन्धेनास्तादृध्वं मुख विन्यस्त निशिताशेषशस्त्रो यथाशास्त्रं बहिनिवेशिताष्ट विषेष्टिसिद्धिस्तद्विद्या धनसमृद्ध बुद्धिर्वभूव । अत्रान्तरे निष्कारणकलिकार्या जनसुन्दयां निशीथ पथवतवीक्षणं नपाक्षणे मध्यदेशे प्रसिद्ध विजयपुर स्वामिनः सुन्दरीमहादेवीविलासिनः स्वकीयप्रतापहृतवानाहूतीकृतारातिसमितेररिमन्य महीपतेर्ललितो नाम भूतः समस्तव्यसनाभिनृतत्वाद्दश्यश्वव्यादसंपादित साम्राज्यपदापायः परमुपायमपश्यन्न दृश्याऽअनश्वर्जनो जितप्रज्ञः प्रतीताज्जनखोरापरसंज्ञः फिलंवमुक्तः – कुशाप्रपुर ४ परमेश्वरस्याप्रमहिष्याः ताविष्याः " सौभाग्य रत्नाकर नाम कण्ठालंकारमिवानीमेव चानीय प्रयच्छसि तदा एवं में कान्तः, अन्यथा प्रणयान्तः" इति । सोऽपि कियद्गनमेतत्' इत्युबाबा "हृत्य प्रियतमामनोरथमन्वर्थ १० कं चिकीषु निज छाय । वृश्यताशील कल बहलं लोचनयुगलं विधाय प्रमाय' "1 १८ लिए दी थी, और अञ्जनचोर अब धरसेन को, जिसे जिनदत्त ने आकाशगामिनी विद्या साधने की कथा श्रवण कीजिए । यहाँ पर समस्त साधनों की सामग्री- समूह एकत्रित करके धरसेन भी गावान्धकार से सफल पदिन ( चतुर्दशी या अमावस्या ) की रात्रि के मध्य में सर्वत्र राक्षसों की दौड़-धूप बढ़ानेवाली स्मशान भूमि पर aaraafnot faद्या आराधन में परिपूर्ण बुद्धिवाला हुआ। वहाँ उसने आकाशगामिनी विद्या के आराघना-योग्य मंडल की रचना की, समस्त दिशाओं में रक्षा मण्डल स्थापित किये । पुनः अकेले इसने सकलीकरण क्रिया सम्पन्न की, अर्थात् - भूमिशुद्धि च अङ्ग शुद्धि आदि क्रियाकाण्ड पूर्ण किया। इसके बाद उसने पूजा-विधान के समय में वटवृक्ष की शाखा के अग्रभाग पर मन में पढ़ने से निश्चित मन्त्रवाक्यवाला होते हुए, { मन में ही मन्त्रोच्चारण करते हुए) ऐसा छींका बांधा, जो कि कन्याओं के करकमलों द्वारा काते हुए सूत के हजार तन्तुओं से बनाया गया था और जिसमें अपने बैठने सरोखा योग्य मध्य स्थान था । इसके बाद उसने छीके के नीचे पृथ्वी पर समस्त तीक्ष्ण शस्त्रों को उनका अग्रभाग ऊपर की ओर करके स्थापित किया । बाद में मण्डल से वाह्य भूमि पर शास्त्रानुकूल आठ प्रकार की पूजा सिद्धि स्थापित करके उसने आकाशमा मिनी विद्या के आराधन में अपनी बुद्धि सन्नद्ध ( तैयार ) की । इसी बीच में एक घटना घटी, अर्थात् अब अजुनचोर की कथा श्रवण कीजिए इसी बीच में विना कारण कलह करनेवाली 'अञ्जनसुन्दरी' नाम की वेश्या ने अर्धरात्रि के मार्ग - वर्ती वीक्षणवाले मध्य रात्रि के समय ऐसे अञ्जनचोर से कहा, जो कि मध्यदेश में प्रसिद्ध 'बिजयपुर नगर के स्वामी, सुन्दरी नाम की पट्टरानी से विलास करनेवाले और अपनी बहुल प्रतापरूपी अग्नि द्वारा शत्रु समूह को भस्म करनेवाले 'अरिमन्थ' नाम के प्रतापी राजा का 'ललित' नाम का पुत्र था, जो समस्त प्रकार के व्यसनों में कामकथा, अतः जिसकी राज्यपद की प्राप्ति में उसके बन्धुजनरूपी राक्षसों ने वाघाएँ डालीं तब उसने दूसरा उपाय न देखकर अदृश्य अञ्जन सिद्ध करके अपनी बुद्धि को शक्ति-युक्त किया, अर्थात् - उस अजन के लगाने से वह अदृश्य हो जाता था और तभी से उसका नाम अञ्जन चोर प्रसिद्ध हो गया । १. एकीकृल-मेलित । २. तिमिरं । ३. रात्रि ४. राक्षसाः 1 ५. सर्वां । ६. एकाकी ७ वलिः । ९. पूजा | १०. मध्यरात्रि ११. अग्निः । १२. गोत्रिण एवं राक्षसाः । १३. विनावाः । १४. राजगृह नामकायाः देव्याः । १६. शत्रुः । १७. उक्त्वा । १८. सार्थकं । १९. गत्वा । ८. कन्या । १५. 'ताबिपी'
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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