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________________ ३९० यशस्तिलकचम्पूकाव्ये ध्यानावलोकधिगलतिमिरप्रताने तो देव केवलमयों श्रियमावधाने । आसीत्वयि त्रिभुवनं मुहयत्सवाय व्यापारमायर मिकपुरं महाय 11 ४६ ।। छत्रं दधामि किम चामरमपिामि हेमाम्बमान्यच जिनस्य पढेपमामि । इत्यं मुवामरपतिः स्वयमेव यत्र सेवापरः परमहं किमु धिम तत्र ।। ४७ ।। rवं सर्ववीपरहितः सुनयं वचस्ते सत्वानुकम्पनपरः सकलो विधिश्च । लोकारतथापि यविष्यतिन त्वयोश कर्मास्य तन्नम रवाविव कौशिकस्य 11 ४८ ।। पुष्पं त्वतीयचरणाचन पीठसङ्गामधामणी भवति देव जगत्रयस्य । अस्पृश्यमायशिरसि स्थितमप्यतस्ते को नाम साम्यमनुपास्तु रवीश्वरायः ॥ ४९ ।। मिथ्यामहारघतमसावृतमप्रयोषमेतत्पुरा जगबद्भवगर्तपाति । तदेव दृष्टिहवयामविकासकान्तः स्यावावरश्मिभिरयोद्धातवांस्त्वमेव ॥ ५० ॥ पादाम्पुजदयमिव तव देव यस्य स्वच्छे मनःसरसि संनिहितं समास्ते । तं धीः स्वयं भजति त नियतं वर्णीते स्वर्गापवर्गजननी च सरस्वतीपम् ॥ ५१॥ ( इत्यहशक्तिः ) समस्त पदार्थों की विवेक बुद्धिवाले आपको पर की ( मुरु-आदि की ) सहायता की वाञ्छा ही क्या है ? अर्थात् आपको ज्ञानाल्पत्ति में गुरु-आदि सहायकों को अपेक्षा नहीं होती ।। ४५ ।। हे प्रभो! जब आप शुक्लध्यानरूपी प्रकाश द्वारा अज्ञानरूपी अन्धकार-समूह को नष्ट करनेवाले होने से उत्पन्न हुई उस केवलज्ञानरूपो लक्ष्मी को धारण करनेवाले हुए तब तीन लोक ने आपको बार-बार पूजा के लिए अपने व्यापार में मन्द होकर ( अपना कार्य रोककर ) एकनगर-सरोखे होकर महान् उत्सव किया। अर्थात्--भगवान् को केवलज्ञान होनेपर उनके समवसरण में नर, सुर व पशु-आदि धर्म-श्रवण के लिए आते हैं ।। ४६ ॥ __"मैं प्रभु के मस्तक पर छत्र धारण करू या चमर ठोस अथवा जिनेन्द्र के चरणों में स्वर्ण-कमल अर्पित करूं' इस प्रकार जहाँ सौधर्मन्द्र स्वयं ही प्रमुदित होकर प्रभु की आराधना में तत्पर है, वहाँ में क्या कहूँ ॥ ४७ ।। हे स्वामिन् ! तुम समस्त दोषों ( भुघा-तुषा-आदि अठारह दोषों) से रहित हो। तुम्हारे वचन स्याद्वाद ( अपेक्षावाद ) रूप हैं ( विविध दृष्टिकोणों से वस्तु का निश्चय करनेवाले हैं )। तथा तुम्हारे द्वारा कही हई समस्त विधि सभी प्राणियों को रक्षा में तत्पर है, तथापि लोक आपसे सन्तुष्ट नहीं होते, इसका कारण उनका मिथ्यात्त्व कर्मही है न कि आप। जिस प्रकार सयं के उदित होनेपर उसे उल्ल नहीं देखता. इसमें उल्ल का दष्टि-दोपही कारण है. न कि सूर्य ॥४८॥ हे प्रभो! तुम्हारे चरणों की पूजा का पुष्प-प्रक्षेप के आधारभूत आसन ( 'पोड़ा ) के संगमात्र से पुष्प, तीनों लोकों के मस्तक का आभूषण हो जाता है, अर्थात्उस पुष्प को सब अपने शिर पर धारण करते हैं। परन्तु दूसरों के शिर पर स्थित हुआ भी पुष्प अस्पृश्य माना जाता है। अत: दूसरे सूर्य व मुद्र-आदि देवताओं से तुम्हारी तुलना को कौन कहे ? ॥ ४५ ॥ हे देव ! पहले मिथ्यात्वरूपी निविड़ अन्धकार से आच्छादित होने के कारण प्रकृष्ट कर्तव्य-ज्ञान से विमुख हुआ यह जगत् संसाररूपी गड्ढे में पड़ा हुआ था, उसका तुमने ही नेत्र-कमल व हृदय-कमल को विकसित करने के कारण मनोज्ञ स्याद्वाद ( अनेकान्त ) रूपी रश्मियों ( किरणों अथवा आकर्षण की अपेक्षा से रज्जुओं ) से उद्धार किया ॥५॥ हे देव ! जिसके विशुद्ध मनरूपी स्वच्छ तहाग में तुम्हारे दोनों चरणकमल समीप में विराजमान हैं, उसकी १. मन्दं। २. पूजाय। ३. चरणाग्रतः यदर्चनपीठं पुष्पप्रक्षेपस्याधारभूतमन्यत् पीठं च वर्तते तस्य संसर्गात् । ४. कथयतु । ५. सूर्य रुद्रायः । ६. नेत्रकमलं हकमलं प। ५. किरणः आकर्षणापेक्षया रज्जुभिः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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