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________________ अष्टम आश्वासः सम्यग्ज्ञानत्रयेण प्रषिवितनिखिलशेयतस्वनपञ्चा: प्रोषय ध्यानवास: सकलमघरजः प्राप्सकयल्यरूपाः । करवा सत्योपकारं त्रिभुवनपतिभिदंतयात्रोत्सवा ये है सिद्धाः सन्तु लोकत्रयशिखरपुरीवासिम: सिर में यः ॥५२॥ बानज्ञानचरित्रसंयमनयप्रारम्भगर्भ मनः कृत्वान्तहिरिन्द्रियाणि मयतः संपम्प पञ्चापि च । पश्चाद्वीतविकल्पजालमखिलं भ्रस्थत्तमःसंतति पानं तप्रविधाय च मुमुखस्तेभ्योऽपि बद्धोजलिः ॥ ५३॥ इत्थं येऽत्र समुद्रकन्दरसर सोसस्विनीभूनमाहापानिमकाननाविषु प्रलम्यानावधान यः ।। फालेषु त्रिपु मुक्तिसंगममुषस्तुत्पास्विभिविष्टपैस्ते रत्नत्रयमनमानि स्वतां भव्येषु रहनाकररः ॥५४॥ (इलि सिक्तिः ) भोमध्यन्तरमयमास्करसरणोविमानाधिताः स्वज्योतिः कुलपर्वतान्तरबारमनप्रबन्धस्थितीः । वन्वे तत्पुरपालनोलिविलसद्रत्नप्रचीपारिताः साम्राज्याय जिनेन्दसिगणभुस्या यायिसाध्याकृती: ।। ५५ ॥ (ति चयक्तिः ) लक्ष्मी स्वयं सेवा करता है और स्वर्ग मोक्ष उत्पन्न करनेवाली यह सरस्वती निश्चित रूप से उसे वरण करती है ।। ५१॥ सिद्ध-भक्ति ऐसे वे सिच परमेष्ठी तुम्हारी सिद्धि ( मुक्ति) के लिए हों, जिन्होंने छद्मस्थ अवस्था में मति, श्रुत व अवधिज्ञान द्वारा समस्त जानने योग्य तत्वों को विस्तारपूर्वक जाना। पुनः शुक्लध्यान रूपी वायु के द्वारा समस्त पापरूपी धूलि को उड़ाकर केवलशान प्राप्त किया। पश्चात् जिन्होंने प्राणियो का उपकार किया । पुनः तीन लोक के स्वामियों ( इन्द्र-आदि) द्वारा जिनका निर्वाण-कल्याणक उत्सव किया गया और जो तोन लोक के अग्रभागरूपी सिद्धपुरी में निवास करनेवाले हैं। अभिप्राय यह है कि इस पत्र में जो तीर्थङ्कर होकर सिद्ध हुए हैं, उन्हें नमस्कार किया गया है ।। ५२ ॥ ऐसे जन सिद्ध परमेष्ठियों के लिए भो में अजलि ( हस्तसंपुट ) जोड़ता हूँ, जिन्होंने अपना मन, दान, ज्ञान, चारित्र, संयम व नयों के प्रारम्भ में स्थापित करके मन व स्पर्शनादि बाह्य इन्द्रियों का तथा पांच वायुओं (प्राण, अपान, समान, उदान' और व्यान ) का निरोध किया । फिर ऐसा शुक्लध्यान प्राप्त करके मुक्त हुए, जिसमें राग, द्वेष व मोहादि समस्त विकल्प समूह नष्ट हो चुके हैं और जो अज्ञानरूपी अन्धकार-परम्परा का विध्वंस करनेवाला है। भावार्थ-प्रस्तुत पद्य में जो सामान्य जन सिद्ध हुए हैं, उन्हें नमस्कार किया गया है ।। ५३ ।। इसप्रकार समुद्र, गुफा, तडाग, नदी, पृथिवी, आकाश, द्वीप, पर्वत वृक्ष व वन-बादि में लगाये हुए ध्यान की संलग्नतारूपी ऋद्विवाले होकर जिन्होंने तीनों कालों ( भूत भविष्यत व वर्तमान ) में मुक्तिश्री के साथ प्रीतिपूर्वक संगम सेवन किया है, जो तीनों लोकों द्वारा स्तुति करने योग्य हैं और जो नाम्यग्दर्शन-आदि रत्नों को खानि हैं, वे सिख परमेष्टी भव्य प्राणियों के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पयः चारित्ररूपी मङ्गल समर्पण करें ।। ५४ ।। चैत्यभक्ति मैं ऐसी अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय च सर्वसाधुओं को प्रतिमाओं को स्वर्ग-आदि के साम्राज्य की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता है, जो कि भवनवासी व व्यन्तरों के भवनों में, मानों के भवनों में, सूर्य१. छद्म स्थावस्थायां । २. धातात-प्राणापानव्यानोदानसमानान् । ३. ध्यानावधानमेव ऋद्धिर्मपां । ४. मौमाः भवनवामिनः । ५. गिरणारादिषु पर्वततलेषू नयनेषु ?। ६. उपाध्याय ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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