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________________ चतुर्थ आश्वास: तास्वपि शय्यासु शरिलवेशापतितेव न सुखायते, मणिमुट्टिमष्वपि संघरन्ती कण्टफोत्कटमेव स्वलसि, मलिकलहेष्वपि विमुभयमाना कृतपिशाचोपनयेव विलपति, कथं चेदानी तु सझुटोटिता घोटिकेव भशायमानगमना तथाविधमहारसंपासेऽम्यरमेव माथिद्धृतेब तिष्ठति, तृणस्तरेऽपि निवसन्ती न मनागपि दुःखायते, परुषमार्गप्रचारेष्वपि कमान्तरेयु प्रमिष्टमाना रयारूठेव प्रयाति, वीरचर्यातिवतिन्यामप्यत्या थेलायामवपणा न बित्ति । कर्ष तु नाम महिलानो स्वप्नेऽपि सरलभावः संभाव्यते, यासामन्तरमनवाप्तावगाह इष मनः कुटिलतासरित्प्रवाहः कुन्तलच्छस्टेन ललाटतटेषु, भूधपना प्रवगान्तरालेषु, विलोकनबाजेन लोचनकुहरेषु, आलापमिषेण वइनफारेषु, गतिविभ्रमेण चरणवत्मंसु, बहिर्शनपघमगात् । अतएव प्रालि चाहिनीनामिव सीमन्तिनौनां प्रायेण भवन्ति मलीममाः प्रवृत्तयः । तथाहि नावेशितो ममात्मनश्च कुलस्य परिवावः, ने गांगतो मनायतामाराय:, नासोनिमावि प्रणयकलहेष्वपि मया विहितपरमार्थापसेन कृत्तान्मनुनयन सारनानि, न स्मृतमननुभूतपूर्वमिवाजन्मसंवधितं सहावसथसस्यम्, न चिन्तिता साल आदि ऐच्छिक विहारों में आमोद-प्रमोद प्राप्त करती हुई अकेली भग्न पैरवाली-सरीखी होकर एक पैर रखने योग्य स्थान प्राप्त नहीं करती थी। यह देवी जल क्रीड़ादि के अवसरों पर कोमल कमलिनी-कन्द के छु जाने से भी मरी हुई-सरीखी मूच्छित हो जाती थी। यह देवी पुष्पों के तोड़ने के अवसरों पर अशोक वृक्ष के पत्तों से रची हुई शय्याओं पर भो ककरीले प्रदेश पर गिरी हुई-सी होकर मुख नहीं मानती थी। यह देवी रत्नखचित भूमियों पर संचार करती हुई कण्टकों से ताड़ित पैरखाली-सरीखी स्खलन करती हुई चलती थी। यह कोड़ा कलहों में भी तिरस्कृत होती हुई ग्रह द्वारा ग्रहण की हुई सरीखी विलाप करती थी। वह इस समय घुड़साल से छूटे हुए बन्धनवाली घोड़ी-सरीखी अत्यन्त तेजी से गमन करनेवाली कोरी हो गई ? वैसे प्रहारों ( दक्षिण हाथ द्वारा तासनों ) के संपात होनेपर भी जो दूसरी कोई धारण की हुई-सरीस्त्री स्थित हो रही है। जो घास के बिछौने पर निवास करती हुई जरा-सी भी दुःखी नहीं होती। जो कठिन मार्गपर गमन करने पर भी बड़े-बड़े प्रकोष्ठों ( कोठों) में प्रवेश करती हुई रथ पर चढ़ी हुई-सी प्रयाण करती है। वीर पुरुषों द्वारा प्राप्त होने के अयोग्य इस गाढ़ रात्रि में अकोली होकर क्यों भयभीत नहीं होती? स्त्रियों में स्वप्न में भी सरलता हो सकती है, यह कैसे विचार किया जा सकता है ? जिन स्त्रियों की मानसिक कुटिलतारूपी नदी का प्रवाह मन में न समाता हुभा ही मानों-निम्न प्रकार वाह्य प्रदेशों में दृष्टिं गोचर हो रहा है। जैसे-जो कुटिलतारूपी नदीप्रवाह केशी के बहाने से उनके मस्तक तटों पर दृष्टिगोचर हुआ। जो भृकुटियों के मिप से कानों के मध्य प्रदेशों पर बाहर दृष्टि पथ को प्राप्त हुआ । जो देखने के बहाने से नेत्र-छिद्रों में बाह्य दुष्टि पथ को प्रा हुआ। जो वचनों के बहाने से मुखरूप गुफा में चाहर दृष्टि गोचर हुआ एवं जो गमन के मिष में पादमागों में बाहर दृष्टि मार्ग को प्राप्त हुआ। अतः स्त्रियों की प्रवृत्तियाँ प्रायः करके वैसी मलिन ( पाप-पुक्त ) होती हैं जेसे वर्षा ऋतु में नदियों की प्रवृत्तियाँ प्रायः करके मलिन होती है। उक्त बात का निरूपण-इस कुलटा अमृतमति महादेवो ने मेरे तथा अपने वंश को निन्दा नहों देखी। इसने अपने में रहनेवाले मेरे असाधारण प्रणय ( स्नेह ) की ओर थोड़ा सा भी विचार नहीं किया। इसने प्रणय-कोपों के अवसर पर भी यथार्थ अपराध करनेवाले मुझ से किये गए अनुनय-प्रसादनों (मान को दूर करनेवाली प्रसन्नताओं की ओर दृष्टिपात नहीं किया। इसने जन्म पर्यन्त वृद्धिंगत हुई सहवास मैत्री का इसलिए चिन्तबन नहीं किया--मानों-जिसे हमने पहिले कभी अनुभव ही नहीं किया है। इसने सर्वलोक से पूज्य अपने महादेवो पद का विचार नहीं किया । मुझ से होनेवाली पराभव
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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