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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मनमान्मा स्वस्य पदवी, कथमिव न स्मिता मतः परिभवाशा, कमिव ने सजितं सपत्नौजनात्य, कमिव न सोभत्सितमयशःपटहस्य, कथमिव च नावधारितमनन्यनमसुलभबिलासानां संपावनम् । यद्यपि 'स्त्रियः चलेषु रम्यन्ते बासहस्सिपकादिषु' इति 'अपात्रे रमते चारों' इति बपनमस्ति, तथापि क्योभोपश्चायषिता कलाम विश्रुतस्वं वा पुरुवाणा संगमयन्त्यसंस्तुता अपि वनिताः । न चास्यतेष्वन्धतमोऽपि गुणः । तरिक नु खल्वस्याः कश्वरलोचनाम्जेस्मिन् कुम्जे प्रीतिकारणम् । आः, अशासिषमनासिषम् । एष हि किल निसर्गकालकण्ठतषा शुष्कानपि तस्य पहलवयतीत्यनेकशः कषित कुमारेण । गृणन्ति घ कलासु गीतस्यैव परं महिमानमुपाध्यायाः। सुप्रयुक्तं हि पोतं स्वभावद्भागममि मरं करोति पुवतीना नयनमनोविश्रामस्थानम् । भवति फुरूपोऽपि गायमः कामयावपि कामिनौनां प्रियवनः । पानेन हि दुर्दशा अपि घोषितः पार्शनाफूष्टा इव सुसरा संगायन्ते । कुशलः कृतप्रयोग हि गेयभपनीय मानप्रहमपरमेव कंसिवनन्यजनसाध्यमा. धिमुत्पावति मनस्थिनीनाम् । अत एवोशन्ति नोतिवेदिनः-तरपयोऽपि पुंयोगः स्त्रियो दूषयति, हि पुनर्म मानुषः । चंतासामकालताशितामिष प्रवृत्तावपेक्षास्ति । प्रत्युत केतक्य इवाशुचिष्वेव वस्तुषु प्रायेण बघ्नन्ति प्रोतिम् ।
भीसि इसके मन में क्यों स्थित नहीं हुई ? यह सौत-समूह से क्यों लज्जित नहीं हुई ? इसने अपकीर्तिरूप नगाड़े की ध्वनि से कैसे घृणा प्राप्त नहीं की? इसने ऐसे भोगों को उत्पत्ति का, जो कि दूसरे लोगों के लिए दुर्लभ हैं, स्मरण क्यों नहीं किया ? यद्यपि स्त्रियाँ दुष्ट सेवक व महावत-आदि में अनुरक्त होती हैं 'स्त्री अयोग्य पुरुष से रमण करती है ऐसी उक्ति है । तथापि युवावस्था, कपूर, कस्तुरी च चन्दनादि भोग, सुन्दर
आभरण-आदि तथा संगीत आदि कलाओं में प्रसिजि.पुरुषों के ये गण, उन्हें अपरिचित स्त्रियों से भी संगम करा देते हैं। परन्तु इस कुब्जक में तो उक्त गुणों में से एक भी गुण नहीं है तव में फिर सोचता हूँ कि इस अमृतमति देवी का इस कुत्सित नेत्र कमलबाले कुब्जक में प्रेम करने का क्या कारण है ? [ उक्त बात को सोचकर ] सन्ताप पूर्वक यशोधर महाराज कहते हैं-मैंने प्रेमका कारण जान लिया, जान लिया।
यशोमति कुमार ने मुझ से अनेक वार कहा है कि यह ( अष्टवक) स्वभाव से ही मधुर स्वरपाली होने के कारण सूखे वृक्षों को भी पल्लवित-उल्लसित कर देता है । अर्थात्-नोरस पुरुषों को भी अनुरञ्जित कर देता है। विद्वान् अध्यापक लोग वहतर कलाओं में गान कला का उत्कृष्ट माहात्म्य कथन करते हैं। अच्छे प्रयोग में लाया हुआ गीत निश्चय से स्वभाव से कूरूप मनुष्य को भी युवती स्त्रियों के नेत्र व हृदय को सुख उत्पन्न करनेवाला स्थान कर देता है।
गायक कुरूप होने पर भी कामिनियों के लिए कामदेव से बढ़कर प्रिय दर्शन-शाली होता है। गानकला के प्रभाव से वे स्त्रियाँ, जिनका दर्शन भी दुर्लभ है, जाल से खोंची हुई-सरीखी विशेषरूप से संगत हो जाती हैं । संगीतशास्त्र में प्रवीण गायकों से अच्छी तरह गाया हुमा गोत मानवती स्त्रियों के अभिमान रूपी पिशाच को दूर करके दूसरी हो कोई अपूर्व मानसी पीड़ा, जो दूसरे के द्वारा न होनेवाली अर्थात्-गीत के बिना ऐसी मानसी पीड़ा कोई उत्पन्न नहीं कर सकता, उतान्न कर देता है। अतः नीतिशास्त्र वेत्ता कहते हैं 'पशुसंबंधी पुस्पसंयोग स्त्रियों को दूषित कर देता है फिर मनुष्यसंबंधी पुरुषसंयोग क्या दूषित नहीं करेगा? ये स्त्रियाँ प्रवृत्ति (संभोग ) में वैसे सुन्दरवस्त्र व मनोज्ञ वस्त्राभरपादि की अपेक्षा नहीं करती जैसे असमय में चमकनेवाली विजली प्रवृत्ति (चमकने ) में कोई अपेक्षा नहीं करती। विशेषरूप से स्त्रियाँ वैसी अशुचि ( मलिन ) वस्तुओं ( पुस्खों ) में ही प्रायः करके प्रेम करतो है जैसे केतकी पुष्प अशुचि वस्तुओं (विष्ठा ) में हो प्रीति रखता है। विद्वानों ने कहा है-'ये स्त्रियाँ पुरुष के सुन्दर रूप को प्रतीक्षा नहीं करतीं, इन्हें पुरुष को जबानी में भी संस्था ( मन का टिकना ) नहीं है। स्त्रिया 'यह पुरुष है' ऐसा मानकर उसे भोग लेती हैं चाहे वह रूपवान हो अथवा कुरूप हो ॥ १॥