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________________ चतुर्थं आश्वास जवाहरन्ति - 'नेता रूपं प्रतीक्षन्ते नासां वयसि संस्थितिः । विरूपं रूपवन्तं वा पुमानित्येव भुञ्जते ॥ १॥ इति ३१ आः पाण्डरपुष्टत्ववालम्बनंकजीविते हि मयि दुष्कर्ममाचरन्ती कथं द्विघा न विदीर्णासि । अहो पर्याप्तं विषयसुतर्षेण तविदानी किमिमाः परित्यक्य परमाज्ञाफलोपचर्थ मैश्वर्थमनुभवामि । तन्न । बिना हि विलासिनोजनेमारष्यमिवेदं राज्यम्, मृतकमण्डन मित्राभरणम्, पोपवेह व विलेपनम् सुप्तसंवाहनमिव शरीरसंस्कार:, प्रकरणमिव धामरातपत्त्राडम्बरः, कालहरणोपाय हव कलानामभ्यासः, तुण्डकण्डूविनयमभित्र काव्याध्ययनम् प्रहाभिनिवेश इव मन्त्रविन्सनम्, कारागारप्रवेशनमिव सभाप्रदानम्, वृथाजीवितपुत्कार इव गेयसमाचारः, संसारसुखोत्सारण पटना इव दुन्दुभीनां नाव:, शैलकन्यरावकाशा इव भवनविनिवेशा:, पितृवनानीवोद्यानानि जठरभृतिवेतनमिव प्रजापालनम् नगरनापितकर्मेव प्रकृतीनामनुनयकरणम्, शुष्कनवीतरणमिव वाञ्गुण्यप्रयोगः, अन्धकारनर्तनमिव धनसंग्रह प्रयासः, पुराकृत पीड़ापूर्वक यशोधर महाराज सोचते हैं हे कुलटे अथवा निर्भागिनी ! मेरे विषय में, जिसके तुम्ही आधार व अद्वितीय जीवन हो, निस्सन्देह ऐसा पापाचरण करती हुई तू कैसे दो टुकड़ों में प्राप्त नहीं हुई ? अहो आश्चर्य है। विषयसुखों में तृष्णा करना निरर्थक है । अतः अब क्या स्त्रियों को छोड़कर उस उत्कृष्ट ऐश्वर्य राज्य लक्ष्मी ) की भागें, जो कि आज्ञारूपी लाभ से पूज्य है । वह भी उचित नहीं है; क्योंकि स्त्रियों को छोड़कर यदि ऐश्वर्य भोगा जाय तो स्त्रीजन के बिना राज्य वन सरीखा निस्सार है। कामिनोजन के बिना सुवर्णमय आभूषणों का धारण मुर्देको अलंकृत करनेसरीखा निष्फल है और कपूर, कस्तुरी व चन्दनादि का लेप करना कीचड़ के विलेपन-सा है | स्त्रीजन के बिना शरीर-मण्डन करना सोते हुए के पेर- दावने जैसा निष्फल है । स्त्रीजन के बिना चमर ढोरने का व छत्र धारण का विस्तार प्रकरण-सा है। अर्थात् — क्षेत्रपाल आदि के वर्धापन ( वर्षगांठ का उत्सव ) सरीखा है । लेखन व पठनादि कलाओं का अभ्यास समय व्यतीत करने का उपाय सा है । कामिनीजन के विना काव्यशास्त्र का अध्ययन ( पठन ) मुख की खुजली दूर करनेसरीखा है और पञ्चाङ्ग मन्त्र का विचार भूतावेश-सा है । रमणीजन के बिना सभा का मण्डन करना जेलखाने में प्रविष्ट होने जैसा है और गानकला की समीचीन प्रवृत्ति वृथाजीवन का पूत्कार-सा है । कामिनीजन के बिना दुन्दुभियों को ध्वनि संसार-सुख को दूर करनेवाली पटह-ध्वनि सो है और नन्द्यावर्त व स्वस्तिकादि महलों में निवास करना पर्वत- गुफाओं में निवास करने सरीखा है तथा प्रमद वन श्मशान-तुल्य है । स्त्रीजन के बिना प्रजा की रक्षा उदरपूर्ति के लिए वेतन - सरीखा है और प्रकृतियों ( अमात्य आदि ) का विनय करना नगर के नाई-कर्म-सा है। अर्थात् जिस प्रकार नाई सभी के कर्म करता है। स्त्रीजन के विना सन्धि व विग्रह-यदि पाजण्य नीति का प्रयोग सूखी नदी में तैरने के समान कष्टप्रद है । कामिनी जन के बिना धन संचय करने का कष्ट अन्धकार में नाचने सरीखा निरर्थक है और शरीर को पुष्ट करना पूर्वजन्म में किये हुए गाय कर्म के भोग निमित्त सरीखा | अहो आश्चर्य है कि ब्रह्मा को एक पदार्थ में विरुद्ध गुणों को रचना सम्बन्धी उत्कृष्ट निपुणता क्या है ? अर्थात् - यदि ब्रह्मा से ऐसी उपयोगी स्त्री रची गई तो उसे गुणहीन क्यों बनाया? क्योंकि वही पदार्थ त्रिप फल सरीखा पूर्वारम्भ में सुस्वादु और परिणाम में विरस होता है, यही ब्रह्मा की एक पदार्थ में बिरुद्ध गुणों की रचना है । समुद्र की तरङ्गों सरीखे प्राणियों का जो उत्पत्ति स्थान है वही विनाश का स्थान है । अर्थात् — जैसे समुद्र तरङ्गों का उत्पत्ति स्थान व विनाश स्थान होता है वैसे स्त्री-आदि इन्द्रियों के भी भोग तत्काल में सुखोत्पत्ति के स्थान और परिणाम में नोरस होने के कारण दुःखोत्पत्ति के स्थान हैं । इन्द्रजाल सरीखे जिस
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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