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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये कर्मानुभवनामिव च देहपोषणम् । अहो किमिवं विधातुरेकत्र विश्वगुणनिर्माणे परमं नैपुणम् । यत्किपाकफलमियापातमधुरः परिणामविरसश्च स एव भवति भाषः, ससुबकल्लोलानामिव यवेव जन्तुमासुत्पत्तिस्थानं तदेव भवति दिलपस्य घ, माहेन्द्रविज्ञान इव पये ननो बाढमुत्कण्ठते तब भवति मुहः शिपिलावरं च पयिकसंगतमिव पदेबानम्वजननं तदेव भवति हेतुमहतः परिसापाग ग. द्विारा शनि का 4 ५५ णामारम्भस्तत एव भयत्युपरमात्र । संप्रति हि मे विघटिततमःपटलावकाशमिव सप्रकाशं मानसम्, उल्लिखिततिमिरवोवमिष पयायवर्शनमनीषं चक्षुः । फौतसकुतोऽयमन्यया ममाय सुविवेकनिश्चयपरश्चित्तप्रसरः । तथाहि-युवफ्नमृगाणा बन्यायालाय हब वनितासु कुन्तलकलापः, पुनर्भवमहोम्हारोहणोपाय इव धूलतोल्लासः, संसार-सागरपरिभ्रमाय मौयुग्ममिव लोचनयुगलम्, दुःखायीविनिपातकरमिय बाचि माधुर्यम्, मृत्युगलप्रलोमनकवल इवायमघरपल्लवः, स्पर्शविषकन्दोभेन इव पयोधरविनिवेशः, यमपाशवेष्टनमिव भुजलतालिङ्गनम्, उत्पत्तिजरामरणवत्मय बलोना प्रपम्, आलम्भनकुण्डमिव नाभिमण्डलम्, अखिलगुणविलोपननप्लरेशेष रोमराजीब्रिनिगमः, कालव्यालनिवासभूमिरिव मेखलास्थानम्, व्यसनागमनतोरणामियोपनिर्माणम्,'
गुणग्रामविलोपेषु साक्षाछुनौतयः स्त्रियः । स्वर्गापवर्गमार्गस्य निसर्गावर्गला इव ॥१५॥ स्थान में यह मन दृढता से उत्कण्ठित होता है उसी स्थान ( स्त्री-आदि विषय ) में बार-बार उदासीन हो जाता है। पथिकों के संगम-सरीखा जो स्थान अथवा वस्तु आनन्द जनक होती है वही महान परिताप फा कारण होती है। हल्दी के राग सरीखे हृदयवाले अस्थिर चित्त-युक्त राजा सरोजे जिससे समस्त कार्यों की उत्पत्ति होती है उसी से विनाश भी होता है । इस समय मेरा मन, जिसमें से अज्ञान-समूह का प्रदेश दूर किया गया है, उसके सरीजा प्रकाशमान हो रहा है। इस समय नष्ट तिमिर-आदि दोषवाली सी मेरी चक्षु यथार्थ वस्तु के देखने की बुद्धिवाली है। अन्यथा-यदि ऐसा नहीं है तो मेरा यह प्रत्यका प्रतीत हुआ मानसिक व्यापार, जी कि विशिष्ट विवेक व निर्णय करने में तत्पर है, कहाँ से हुआ ? उसी अज्ञान के निराकरण का कथन करते हैं
कमनीय कामिनियों के केरापाश युवकजनरूपी हरिणों के बांधने के लिए जाल-सरीखा है। उनकी भृकुटिलताका विलास संसाररूपी वृक्ष पर चढ़ने का उपाय-सरीखा है। रमणियों का नेत्र युगल संसार समुद्र में पर्यटन करने के लिए नौका युगल के बन्ध-सा है एवं उनकी वचन-मधुरता दुःखरूपी अटवी में पातन कारक ( गिरानेवाली ) सी है।
स्त्रियों का विम्बफल-सा ओष्ठपल्लब मृत्युरूपी हाथोके प्रलोभन के लिये प्रास-सरोग्ना है । कामिनियोंके कुचकलशों का विनिवेश स्पर्शविप ( जिसके छूने से विष चढ़ता है ) वाले गोलाकार मूल की उत्पत्ति-जैसा है और उनकी भुजारूपो लतासे आलिङ्गन करना यमराज के जाल द्वारा अपने शरीर का वेन्दन गरीखा है एवं उनके उदर को त्रिवलिया ( तीन रेखाएं ) जन्म, जरा व मरणके मार्ग जैसी हैं। कामिनियों का नाभिमण्डल आलम्भन कुण्ड-शा है। अर्थात्-जिस कुण्ड में ब्राह्मणों द्वारा पशु हो जाते हैं-मारण कुण्ड सा है एवं उनकी रोमराजि का वाहिर निकलना समस्त गुणों ( कवित्व शक्ति व बक्तृत्वकला-आदि ) के दूर करने में मखरेखा-जैसा है। स्त्रियों का मेखला स्थान ( गुह्य ) यमराजरूपी कालं साँप की निवास-भूमि-सरीखा है और उनके करुओं की रचना दुःखरूपी राजाके प्रवेश करने के तोरण-सरीखो है।
गुणरूपी नगर को उजाड़ करने में, स्त्रियाँ प्रत्यक्ष से अन्याय-सरीखी है। अर्थात्-जैसे अन्याय से आम उजाड़ हो जाते हैं वैसे ही स्त्रियों से गुण नष्ट हो जाते हैं और स्वर्ग व मोक्षमार्ग को स्वभाव से अर्गला ( वेडा ) सरीखी हैं ।। १५ ।। अमृतप्राय नेत्रोंवालों स्त्रियाँ परिपाक ( फर्मोदय ) में विष के समान कौन-कौन
१. शिलटोपमालंकारः । २. पकीपमालंकारः ।